जानते हैं बात यह सब, मानता कोई नहीं,
कह रहे सब दूसरे को, ठानता कोई नहीं।होती नही जेब कफ़न में, क्या लेकर जायेगा,
रहस्य मृत्यु के बाद का, जानता कोई नहीं।
कर्म का लेखा भी देखो, सबको यहाँ मिल रहा,
गीता का सार मानवता, पहचानता कोई नहीं।
बढ़ रहा है भ्रष्टाचार, मौत का होता व्यापार,
मृत्यु अपनी भी सम्मुख, विचारता कोई नहीं।
सत्य का अनुसरण करें, सत्य सब जानते,
स्वार्थ में असत्य गमन, मानता कोई नहीं।
बोकर पेड़ बबूल का, आम की चाहत में सब,
उपवन की चाह सबको, सँवारता कोई नहीं।
परोपकार की भावना ही, धर्म का आधार है,
ज्ञानी जनों के ज्ञान को, अपनाता कोई नहीं।
क्या मेरा था क्या तेरा, सब यहीं रह जायेगा,
निहारते सब ज्ञान को, निखारता कोई नहीं।
जानते हैं सब, पर मानता कोई नहीं,
चाहते हैं सब, पर ठानता कोई नहीं।
भारत की संस्कृति सदा सनातन रही,
संस्कृति का सार, जानता कोई नहीं।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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