देश का पार्टी तंत्र बनाम लोकतंत्र
डॉ राकेश कुमार आर्य
हम देखते हैं कि राजनीति में कई बार ऐसा होता है कि जनता किसी पार्टी का विधानमंडल में पूर्ण रूप से सफाया कर देती है, परंतु कुछ समय पश्चात फिर वही पार्टी और जनता द्वारा सत्ता से खदेड़ कर बाहर किया गया पार्टी का वही चेहरा हमारे सामने प्रचंड बहुमत के साथ आ खड़ा होता है। जिस राजनीतिक दल या व्यक्ति को एक प्रमुख चेहरे के रूप में हमने मरा हुआ समझ लिया था या अतीत का इतिहास बन गया समझ लिया था वही फिर जीवंत होकर लौट आता है। क्या जनता उस पर कृपा करती है या वह व्यक्ति इतना अधिक कर्मठ और संघर्षशील प्रवृत्ति का होता है कि फिर लौट आता है ? जहां यह प्रश्न है वही यह भी प्रश्न है कि राजनीति में लोग जिंदा क्यों बने रहते हैं ?
केजरीवाल के पतन के संदर्भ में इन प्रश्नों पर विचार किया जाना आवश्यक है। भविष्य में केजरीवाल लौटेंगे या जनता उन पर कृपा करेगी या कोई मजबूरी बनेगी कि वह फिर लौट आएंगे ? इसी प्रकार राहुल गांधी जैसे चेहरे पर भी विचार करना चाहिए कि क्या 90 बार विधानसभाओं और संसद के चुनाव हारने का कीर्तिमान बनाने वाला यह चेहरा किसी कर्मठ और संघर्षशील व्यक्तित्व का चेहरा है ? और क्या यह भविष्य में सत्ता शीर्ष पर पहुंचा तो अपने संघर्ष के कारण पहुंचेगा या किसी मजबूरी के कारण जनता उस पर कृपा करेगी ?
इन प्रश्नों पर विचार करने से पूर्व हम यह जान लें कि लोकतंत्र योग्यता को आगे लाने की एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जो सर्वोत्तम को प्राथमिकता प्रदान करती है। यह विचार सबको अच्छा लगता है । बस, लोकतंत्र की इसी विशेषता के कारण लोकतंत्र को पसंद किया जाता है, परंतु स्मरण रहे कि इस लोकतंत्र के साथ पार्टीतंत्र भी जुड़ा हुआ है और यह पार्टी तंत्र ही है जो लोकतंत्र के इस सर्वोत्तम विचार या सर्वश्रेष्ठ विशेषता की हत्या करता है।
विचार किया जाए तो पता चलता है कि जहां लोकतंत्र योग्य लोगों को सामने लाने की भावना पर बल देता है, वहीं पार्टी तंत्र अयोग्य लोगों के माध्यम से लोकतंत्र को हड़पने का या उसकी हत्या करने का काम करता है । पार्टी तंत्र में अयोग्य लोग अपनी योग्यता को छिपाकर योग्य बने रहने का नाटक करते रहते हैं। यह एक जुआ है, जिसमें जनता द्वारा नकारे जाने के उपरांत भी लोग अपनी किस्मत को दांव पर बार बार लगाते रहते हैं। योग्य लोग पीछे हटा दिए जाते हैं और अयोग्य लोग सामने बैठकर दांव लगाते रहते हैं। पार्टी तंत्र में योग्यता का उपहास किया जाता है। योग्यता से लगभग शून्य पार्टी तंत्र मूर्खों का सम्मान करते हुए आगे बढ़ता रहता है। बस, इसी बात को समझने की आवश्यकता है। ऊपर लिखे सभी प्रश्नों का उत्तर आपको अपने आप मिल जाएगा। पार्टी तंत्र में लोकतंत्र की हत्या करके लोकतंत्र का छद्म रूप धारण किया जाता है और लोकतंत्र के योग्यता को प्रणाम करने के संस्कार को पार्टी तंत्र बहुत पीछे छोड़कर आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है। जिससे जनता भ्रमित हो जाती है।
केजरीवाल जैसे लोगों को यदि जनता पीछे हटाकर फेंक भी देती है तो भी वह राजनीति में जुआ के खेल में लगे रहकर इस बात की प्रतीक्षा करते रहते हैं कि जब सत्ता में आई हुई पार्टी से लोगों का मन भर जाएगा तो फिर हमको ही चुना जाएगा। इस प्रकार लोकतंत्र अयोग्य लोगों की जूठन में से योग्य व्यक्ति को तलाशने की एक प्रक्रिया बनकर रह जाता है।
जनता के पास बड़े से बड़े मूर्खों के बीच में से छोटे मूर्ख को चुनने की मजबूरी होती है। जब उसके सामने कोई योग्य व्यक्ति खड़ा हुआ दिखाई नहीं देता तो उसे मूर्खों में से ही अपने लिए किसी छोटे मूर्ख को चुनना उसकी मजबूरी होता है । कई बार जिसको वह पूर्व में आजमा चुकी होती है, उसे चुनने की मजबूरी भी उसके सामने आ जाती है। तब वह ऐसे किसी व्यक्ति या राजनीतिज्ञ पर कृपा नहीं कर रही होती अपितु अपनी मजबूरी का प्रदर्शन कर रही होती है। जिसे पार्टी तंत्र के द्वारा ढोल बजाकर इस प्रकार महिमा मंडित किया जाता है कि अमुक नेता बहुत ही संघर्षशील व्यक्तित्व का धनी है ? हम जनता की मजबूरियों को जनता की कृपा समझ लेते हैं और नेता की चालाकियों को उसका संघर्षशील व्यक्तित्व समझ लेते हैं । यदि एक मूर्ख के सामने 10 योग्य से योग्य विद्वान खड़े हों और जनता उनमें से चुनाव करें तो यह कहा जा सकता है कि हम वास्तव में लोकतंत्र में जी रहे हैं। उसे आप लोकतंत्र नहीं कह सकते जिसमें एक अयोग्य हजार योग्य लोगों को पीछे हटाकर पार्टी तंत्र पर अपना एकाधिकार स्थापित करने में सफल हो जाए। हम देखते हैं कि जो व्यक्ति पार्टी तंत्र में इस प्रकार हजारों लोगों को पीछे धकेल कर अपने आप को स्थापित करने में सफल होता है तो वह सत्ता में आने के बाद देश के तंत्र को तानाशाही पूर्ण ढंग से धकेलने का प्रयास करता है । उसका योग्य लोगों की योग्यता या प्रतिभा को निखारने से कोई मतलब नहीं होता। वह पार्टी तंत्र में "यस मेन" लोगों को प्राथमिकता देता है। ऐसी पार्टी के सांसदों विधायकों को समझाया जाता है कि उन्हें विधान मंडलों में कब मेजें थपथपानी हैं ? कब अपने नेता की बात पर ताली बजानी है ? कब खड़े होकर रोना है ? और कब बैठे-बैठे हंसना है ? इससे आगे पार्टी तंत्र में लोगों की अथवा विधानमंडल के सदस्यों की कोई भूमिका नहीं होती। ऐसे लोगों से आप कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वह किसी संघर्षशील कर्मठ व्यक्तित्व के धनी होंगे ? और उनके रहते हुए देश का भला हो सकता है।
नेताओं की मान्यता होती है कि कुछ देर बाद लोग पीछे की बातों को भूल जाते हैं और फिर वह उनको दोबारा मौका दे देंगे। इसी आशा पर ये लोग जीते हैं और समय आने पर अपने आप को संघर्षशील व्यक्तित्व का धनी सिद्ध कर लोगों का पागल बनाने में सफल हो जाते हैं। इसी प्रतीक्षा में राहुल गांधी बैठे दिखाई दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश में इसी प्रतीक्षा में अखिलेश यादव और मायावती बैठे मौजमस्ती की जिंदगी जी रहे है। अन्य प्रदेशों की भी यही स्थिति है।
पार्टी तंत्र पर एकाधिकार स्थापित कर देश के लोकतंत्र पर भी एकाधिकार स्थापित करने में सफल होने वाले इन इन राजनीतिक लोगों के कारण देश का कितना अहित हो रहा है, देश के समझदार लोगों को सोचने की आवश्यकता है ?
(लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है )
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