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पाप धुल जाने का भ्रम

पाप धुल जाने का भ्रम

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
कुरुक्षेत्र रणभूमि के एक विशेष सुरक्षित क्षेत्र में शर-शैय्या-शायी गंगापुत्र भीष्म शोकसंतप्त पाण्डवादि से घिरे हुए हैं। श्रीकृष्ण भी वहीं उपस्थित हैं। मृत्यु भी जिनकी इच्छा की प्रतीक्षा करती है, ऐसे सिद्ध पुरुष शान्तनुनन्दन का चित्त उद्वेलित है। संशयात्मक जिज्ञासा है उन्हें, क्योंकि विगत सौ जन्मों तक का ज्ञात अतीत भाँक आए हैं, जिसमें कहीं कोई ऐसा पाप उनके द्वारा नहीं हुआ है, जिसका दुष्परिणाम वे आज भुगत रहे हैं, इस शरशैय्या पर।
उनके इस संशय के निवारण हेतु श्रीकृष्ण उन्हें अतीत के कुछ और पन्ने पलटने की शक्ति प्रदान करते हैं। और तब पितामह ने देखा वो दृश्य, जिसमें अनजाने ही उनका वाण एक गिलहरी को वेधकर नागफनी के पौधे पर ला फँसाया है। शताधिक जन्मों के पश्चात् आज वही अभुक्त कर्मफल युद्धभूमि में शरशैय्या स्वरूप फलित हो रहा है।
प्रश्न है कि क्या भीष्म ने ऐसा कोई सत्कर्म नहीं किया पिछले शताधिक जन्मों में, जो इस छोटे से अनजान अपराध से उन्हें मुक्ति दिला सके?
ऋषि माण्डव्य के साथ भी एक विचित्र घटना घटी थी—अवोधावस्था में उन्होंने एक फतिंगे के गुदामार्ग में सींक चुभो दिया था, जिसके परिणामस्वरूप गुदामार्ग में शूल चुभी स्थिति में ही उनका अगला जन्म हुआ ।
हालाँकि ऋषि माण्डव्य ने अबोधावस्था के पाप का ऐसा कठोर दण्ड-विधान-कर्ता धर्मराज को ही शापित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप धर्मराज को महात्मा विदुर के रूप में जन्म लेना पड़ा।
कर्मजगत में सदा सचेष्ट, एकदम फूँक-फूँककर पग धरने वाले धर्मात्मा, दमयन्ति पति राजा नल की निर्मलकाया कलिग्रस्त हो गई, जिसके परिणामस्वरूप सबकुछ विखर गया—राज्य, राज्यलक्ष्मी और गृहलक्ष्मी भी।
विगत सदी में श्रीरामकृष्ण परमहंसजी एक अद्भुत संत हुए। सुनते हैं कि उनका सिर सहलाया करती थी वात्सल्यमयी माँ काली। जबकि आश्चर्य की बात है कि वे गले के कर्कटार्बुद से पीड़ित रहते हुए, बहुत कष्टमय स्थिति में शरीर त्यागे।
प्रश्न उठता है कि शिरोवेदना दूर करने वाली जगदम्बा के लिए ये व्याधि असाध्य कैसे हो गई?
संशय और जिज्ञासा समीचीन है। विचारणीय है। चिन्तनीय है। मननीय है। वस्तुतः कर्म की गति बड़ी गहन है—...गहना कर्मणो गतिः। (गीता४-१७) इस गम्भीर विषय को ठीक से समझना बड़ा कठिन है।
अपने राजपुरोहित को यमलोक के अग्निकुण्ड में तड़पते देखकर, जिज्ञासु राजा सोमक को धर्मराज समझा रहे हैं—नान्यः कर्तुः फलं राजन् नुपभुङ्ग्क्ते कदाचन...कर्म का फल स्वयं कर्म के कर्ता को ही भुगतना पड़ता है—इसमें संशय नहीं।
यानी कि अवश्यमेव भोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभम्—शुभाशुभ कर्म हर हाल में हमें भोगना ही पड़ता है—इसकी प्रमाणिकता सिद्ध हो रही है !
ऐसे में संशयात्मक जिज्ञासा स्वाभाविक है—यदि ऐसा ही है, तो फिर यद्ह्ना कुरुते पापं तद्ह्ना प्रतिमुच्यते...यद्रात्र्या कुरुते पापं तद्रात्र्या प्रतिमुच्यते...का क्या मतलब? ऐसा क्यों कहा गया?
भविष्यपुराण, आदित्यहृदय प्रसंग में उक्त बातें कही गई हैं कि आदित्यहृदयपाठी का दिन का किया हुआ पाप दिन में ही नष्ट हो जाता है और इसी भाँति रात का किया हुआ पाप रात को ही नष्ट हो जाता है। ऐसे ही भावों के अनेकानेक श्लोक पुराणादि में मिलते हैं, जिनमें भगवन्नामजप, कीर्तन, स्तोत्रपाठादि फलश्रुति प्रशस्ति है।
जो वेद, उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मणादि जैसे जटिल विश्लेषणों को हृदयंगम नहीं कर सकते हैं, उनके लिए पुराण स्वरूप सरलीकरण किया गया। किन्तु कलिमल ग्रसित आलोड़ित काल में पुराणोदधि को मथकर, निर्मल नवनीत निकालना भी इतना सहज नहीं है।
योगशास्त्र चित्त वृत्तियों के निरोध की बात करता है योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः...अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः। (पतञ्जलि) यानी शुभ वा अशुभ समस्त कर्मों की वृत्तियाँ जब स्वयमेव निरुद्ध हो जायेंगी, तभी योगसिद्ध होगा।
संशयाविष्ट शोकसन्तप्त अर्जुन को भी पहले सांख्य-सिद्धान्त ही सुझाया गया, क्योंकि वे सांख्य शैली में ही कुतर्क कर रहे थे। कर्मयोग की बात तो बाद में चली। और फिर भक्तियोग पर आकर अटक गई।
श्रीकृष्ण कहते हैं—आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन । (८-१६पूर्वार्ध) यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।(८-२१उत्तरार्द्ध) अर्थात भूलोक से ब्रह्मलोक तक के सभी लोक आवागमन (पुनर्जन्म) वाले हैं, जबकि श्रीकृष्ण का परमधाम पुनरावर्ती नहीं है।
श्रीकृष्ण ने बड़ी चतुराई से, बड़ी सहजता से, दृढ़तापूर्वक निष्कामकर्मयोग की महिमा का बखान किया है। वस्तुतः इन सारी समस्याओं की जड़ ऐष्णा, कामना, कर्तापन ही है। निरन्तर अभ्यास से यदि ये नष्ट हो गया तो फिर कोई चिन्ता की बात नहीं। और यदि लाख चेष्टा के बावजूद यत्किंचित् भी शेष रह गया, तब तो भँवजाल भुगतना ही है। सुकर्म (पुण्य) सोने की हथकड़ी के समान है और कुकर्म (पाप) लोहे की हथकड़ी के समान। बन्धन तो दोनों ही हैं। मजे की बात है कि दोनों का सुखासुख परिणाम स्वतन्त्ररूप से भुगतना ही है जीवमात्र को।
अतः इस भ्रम में न रहें कि पुण्य अर्जित करके, पाप से मुक्ति पा गए। मजेदार बात है कि पुण्य अर्जित कितना कर रहे हैं ? महाकुम्भ की भीषण भीड़ का हिस्सा बन जाना पुण्य नहीं है। वैष्णोदेवी का पहाड़ चड़ जाना मात्र पुण्य नहीं है। रात की बची रोटी गाय, कुत्ते या भिखारी को दे देना मात्र पुण्य नहीं है।
ध्यातव्य है कि कर्म का उद्देश्य क्या है, कर्म करते समय भाव कैसे हैं, विचार कैसे हैं—ये विशेष विचारणीय है। त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेव समर्पयेत्...तेरा तुझको अर्पण...। कण-कण व्यापी ईश्वरीय सत्ता का आभास हो जाए यदि, फिर कोई यात्रा आवश्यक नहीं। और यदि नहीं हुआ, तो सारी यात्राएँ व्यर्थ।
अतः निरन्तर प्रयास हो कर्तापन के नाश का, निष्काम कर्म का । और यह निष्काम कर्म (कर्तापन के नाश का अभ्यास) इतना आसान नहीं है, जितना हम समझते हैं। अतः एक काम और करते रहें—कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् । करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि—शरीर से, वचन से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से या स्वाभाविक रूप से, जो कुछ भी हो रहा है इसे श्रीनारायण को समर्पित कर देने का अभ्यास। और हाँ, ये समर्पण वाला अभ्यास किसी एक जन्म में सिद्ध हो ही जाय, कोई जरुरी नहीं । किसी क्षण विशेष में घटित हो जाए—वो बात अलग है, क्योंकि बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।
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