अभी विश्व रेडियो दिवस गया..हमारी उम्र के आसपास के साथी रेडियो के साथ अपनी यादों को कैसे विस्मृत कर सकते हैं..
मैंने भी अपनी यादों की कैसेट रिवाइंड की:-डॉ मुकेश असीमित
रेडियो: यादों की धुन पर सजा सफर
रेडियो से जुड़ी यादें बचपन से ही मेरी ज़िंदगी का हिस्सा रही हैं। हालाँकि, आजकल बचपन में असली बचपन कहाँ बचता है? जब हमारे कान सुनने लायक हुए और हमारा बचपन उद्दंडता और खिलंदड़पन की दीवारें लांघने लगा, तब माँ-बाप की डांट-फटकार के अलावा, पड़ोस के चाचा के रेडियो की आवाज़ भी हमारी दुनिया में दाखिल हो चुकी थी।
रेडियो हमारे लिए किसी अजूबे से कम नहीं था। आज के मिनी टीवी की तरह, रेडियो भी एक बड़ी-सी जादुई चीज़ हुआ करता था। ट्रांजिस्टर शायद रेडियो का छोटा संस्करण था, जो बहुत बाद में आया। उससे पहले रिकॉर्ड प्लेयर हुआ करते थे, जिन्हें शादी-ब्याह में बजाने के लिए किराए पर लाया जाता था। उसमें एक भोंपू लगा होता था, जिससे बजने वाले गाने पूरे गाँव में गूंजते रहते। वहीं से शादी-ब्याह या किसी कार्यक्रम की सूचना भी दी जाती—
"बारात आ चुकी है, अगुआई के लिए आ जाओ..."
"लड्डू कम हो रहे हैं, अरे उस पंगत का ध्यान रखो, कोई नमक का दौना उधर भेज दो..."—ज्योणार में घोषणा
"फलाने के बेटे की सगाई में 51 हज़ार नगद, 21 वेश, 11 सवागे आए हैं..."—दहेज की औपचारिक घोषणा
फिर आया टेप रिकॉर्डर। इसके साथ कैसेट का ज़माना आया। गाँव में सिर्फ दो-तीन पान की दुकानें ऐसी थीं, जो कैसेट भी रखती थीं। दिनभर दुकानदार कैसेट रिपेयरिंग में लगा रहता—
रील को गोंद से जोड़ना, घुंडियों को बैठाना, कैसेट के पहियों पर रील चढ़ाना, फिर दूसरे फ्लैप को बंद करना, और फिर पेंसिल से घुंडी घुमाना!
उस ज़माने में संगीत सुनना मतलब एक पूरा अनुष्ठान हुआ करता था।
जिसके पास रेडियो होता, वह गाँव का सबसे लाड़ला और मोस्ट वॉन्टेड इंसान बन जाता। क्रिकेट की कमेंट्री वाले दिन तो उसके घर के बाहर सुबह से ही भीड़ लग जाती। बिनाका गीतमाला के लिए भी यही हाल था। उस दौर में बुधवार की शाम का मतलब था बिनाका गीतमाला। अमीन सयानी साहब की वह झंकारती हुई आवाज़—
"बहिनों और भाइयो, अब आप सुनने जा रहे हैं, इस हफ्ते के टॉप पायदान पर मौजूद गीत!"
—और फिर एक-एक कर आते सुपरहिट गानों की गूंज। वह एक इंतज़ार था, जो पूरे हफ्ते चलता था।
इसके अलावा, जयमाला नाम का एक कार्यक्रम फौजियों के लिए आता था। और फिर आकाशवाणी की आवाज़—
"यह आकाशवाणी है। अब आप देश-दुनिया के समाचार सुनिए।"
"विविध भारती सेवा पर प्रस्तुत है— भूले-बिसरे गीत।"
"चलते-चलते सुनिए— हवा महल!"
फरमाइशी गीतों की बात करें, तो ‘झुमरी तिलैया से गेंदीलाल जी’ की फरमाइश हमेशा टॉप पर रहती। हम मन ही मन सोचते कि यह झुमरी तिलैया आखिर कौन-सा जादुई शहर है, जहाँ हर बार सबसे ज्यादा फरमाइशें आती हैं।
रेडियो घर में नहीं था, लेकिन पड़ोसियों के रेडियो पर कान लगाकर बिनाका गीतमाला का इंतज़ार करना, क्रिकेट की कमेंट्री में रम जाना, और फरमाइशी गीत सुनकर अंदाज़ा लगाना कि इस बार झुमरी तिलैया से किसकी फरमाइश आई होगी—ये सब एक अलग ही दुनिया थी।
क्रिकेट को हमने पहले रेडियो पर सुना, बाद में जाना कि यह असल में कैसे खेला जाता है। ऑल इंडिया रेडियो में जब कमेंट्री आती, तो कान पूरी तरह रेडियो को समर्पित हो जाते—भूख-प्यास सब भूल जाते। मम्मी घर के दरवाज़े पर आवाज़ लगाती रहतीं और हम बेखबर, ढीठ से...
"चार रन... छक्का... बाउंड्री पार!"
तो मन ही मन हम भी बल्ला घुमाने लगते। कभी क्लीन बोल्ड सुनकर गहरा अफसोस होता, तो कभी पवेलियन लौटे सुनकर लगता जैसे टीम का कोई बड़ा नुकसान हो गया।
टीवी आने के बाद जब पहली बार क्रिकेट देखा, तो अहसास हुआ कि असल मैच तो हमारे मन में पहले ही खेला जा चुका था। हाँ, हमारे समय में क्रिकेट का गली वर्जन इजाद नहीं हुआ था, लेकिन तब भी समय बर्बाद करने के लिए ढेरों विकल्प थे—गलियों में तार के चक्कर घुमाना, गिल्ली-डंडा (सतोलिया/पिट्ठू), आइस-पाइस (लुका-छिपी), छुआ-छूई आदि।
कुछ लोग अपने कंधे पर रेडियो टाँगे रहते थे, कान उससे सटाए गली-गली घूमते थे। ये लोग चलते-फिरते आकाशवाणी की तरह थे। इनका रेडियो इतनी तेज़ बजता कि हम सब घरों से बाहर निकलकर चबूतरों पर बैठकर कार्यक्रम सुनते थे।
धीरे-धीरे टेप रिकॉर्डर आ गए, फिर मनपसंद गाने कैसेट में कैद होने लगे। इसके बाद टेलीविज़न ने अपने पाँव पसारने शुरू किए। रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों ने पूरे देश को टीवी के सामने बैठा दिया। घर में पहला बड़ा शटरवाला टीवी आया, ऊपर एंटीना लगा, और फिर रेडियो की ध्वनि थोड़ी फीकी पड़ने लगी।
गाँव में सिर्फ दो टीवी थे, लेकिन जब हनुमान जी भगवान राम को कंधे पर उठाने वाले होते, तो पूरा गाँव टीवी वाले घर में जमा हो जाता था।
दसवीं पास करने के बाद जब शहर आए, तो रेडियो पीछे छूट गया। फिर एक परिचित पाली गया, नर्सिंग की ट्रेनिंग करने। वहीं, जिले में फालना ब्रांड का रेडियो बनता था। वहाँ से एक रेडियो लेकर आए। यह हमारे घर का पहला रेडियो था।
चार बैटरियों से चलने वाला रेडियो एक महंगी चीज़ थी। बैटरियों की कीमत इतनी थी कि एक बार स्पेशल छुट्टी लेकर गाँव रेडियो सुनने आए, लेकिन 20 दिन बाद बैटरियाँ खत्म! नई बैटरियों की माँग की, तो पिताजी ने साफ़ कह दिया—
"कोई रेडियो-वेडियो नहीं, पढ़ाई करो!"
बस, रेडियो कबाड़ में चला गया।
मेडिकल कॉलेज में आने के बाद एक तकनीकी क्रांति हुई—एडॉप्टर नाम की चीज़ आई, जिससे रेडियो को बैटरी के बजाय सीधे बिजली से चलाया जा सकता था। अब बैटरी का झंझट ख़त्म! हमने तुरंत पुराना रेडियो घर से मँगवाया।
माँ ने उसे कबाड़ में रखा था, लेकिन हमने धूल झाड़कर उसे वापस ज़िंदा किया और जयपुर के हॉस्टल में ले आए। अब यह हमारे स्टडी टेबल का स्थायी साथी बन गया। सुबह 6 बजे उठने से लेकर रात 11 बजे सोने तक, रेडियो हमेशा साथ रहता। जब देर रात पढ़ाई करनी होती, तब भी हल्की आवाज़ में रेडियो चलता रहता। वो धीमी आवाज़ हमें अहसास कराती कि कोई है, जो हमारा साथ निभा रहा है।
कमरे में एक रूममेट था, जिसे पढ़ाई के लिए बिल्कुल सन्नाटा चाहिए था। लिहाज़ा, हमने रेडियो की आवाज़ इतनी धीमी रखी कि बस हमें ही सुनाई दे। और सच कहूँ, तो पढ़ाई में जो एकाग्रता इस बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ आती थी, वो बिना इसके कभी नहीं आई।
अब रेडियो का ज़माना बदल गया है। एफएम रेडियो, डिजिटल रेडियो, और न जाने कितने नए अवतार आ चुके हैं। मोबाइल में किसी भी रेडियो का ऐप डालो, एक क्लिक में रेडियो की आवाज़ आपके घर तक... पॉडकास्ट आ गए... एफएम की फौज आ गई... अलाना एफएम, फलाना एफएम... रेडियो जॉकी आ गए... पाश्चात्य धुनों का रीमिक्स रेडियो हो गया... लेकिन वो मज़ा, जो स्टेशनों की घुंडी घुमाकर ट्यून करने में आता था, वो अब कहीं खो गया है।
वो अनिश्चितता कि अगला गाना कौन-सा होगा, वो क्रिकेट कमेंट्री की ताजगी, वो अमीन सयानी की टॉप टेन अनाउंसमेंट—ये सब अब सिर्फ यादों में ही रह गए हैं।
रेडियो से जो रिश्ता बचपन में बना था, वो आज भी दिल में कहीं गूंजता है। फर्क बस इतना है कि अब वो आवाज़ बाहर से नहीं, भीतर से आती है...
रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
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