हार कर भी दंभ अभी छूटा नही है,
जल गयी रस्सी, बल टूटा नही है।समझते रहे खुद को स्वयंभू खुदा,
पाप का घड़ा अभी फूटा नही है।
छल कपट बेईमानी खून में बढ रही,
भ्रष्टाचार की जड़ें, आप में जड़ रही।
अपनों की पीठ खंजर, इतिहास इनका,
बदलने की चाहत, दिल्ली भी अड रही।
खालिस्तानियों के समर्थन में सदा खड़े रहे,
आतंकियों के हितों की पैरोकारी, अड़े रहे।
सेना के शौर्य पर प्रश्न सदा उठाने वाले,
शराब घोटालों में लिप्त, नशे में धुत्त पड़े रहे।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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