जिंदगी जीने की कला
जिंदगी सृष्टि की ऐसी ये बला है ,जिसमें जीवन जीने की कला है ,
जीवन में जैसा कला भर जाए ,
जीवन भी उसी कला पे पला है ।
कहते हैं जीवन है आजाद यह ,
किंतु जीवन स्वयं गुलाम बना है ,
नहीं मनमर्जी चल पाती इसकी ,
न कहीं स्वयं किसी पर तना है ।
मनमर्जी नहीं चली जहाॅं पर ,
जीवन में यह बहुत ही खला है ,
जिंदगी सदा रहा है यह विवश ,
समय जिंदगी को सदा छला है ।
सृष्टि देती हमको यह जिंदगी ,
जिंदगी में जितनी हो ये वंदगी ,
जिंदगी ढूॅंढे़ पल भर का सुख ,
जिंदगी में है आजीवन क्रंदगी ।
व्याधा रूप में व्याधि ये चला है ,
व्याधि से यह जीवन जला है ,
जिंदगी तेरी यह सोच ही अधूरी ,
व्याधि ने तुझे जैसे तेल तला है ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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