विध्वंसकारी है दुःख
जन जन हैं यह जानते ,मुखरित करता है मुख ।
आनंददाई खूब है होता ,
विध्वंसकारी है ये दुःख ।।
ईश वरदान यह सुख है ,
दुःख है ईश अभिशाप ।
या तो दुःख धैर्य परीक्षा ,
या है यह कर्मों के पाप ।।
मानव कर्म चारों निहित ,
धर्म अधर्म प्रेम व्यवहार ।
मार्ग जो आप अपनाइए ,
वही होता है जीवन सार ।।
वही होता है जीवन सार ,
वही होता कर्मों के फल ।
आज नहीं तो मिलेगा ही ,
निश्चित आनेवाला कल ।।
आवे ये विनाशकारी कल ,
बढ़ जाता है पेट का भूख ।
अन्न धन जन भी होते नाश ,
ढो लेता विनाशकारी दुःख ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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