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शब्द आते हैं धीरे-धीरे,

शब्द आते हैं धीरे-धीरे,

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
जैसे किसी गहरे कुएँ से
रस्सी पर लटकते हुए,
एक-एक कर निकलते हों।
कभी धुँधले
कभी साफ़,
कभी अधूरे
तो कभी इतने तेज़,
कि दिमाग़ की दीवारों से टकराकर
ख़ुद ही लौट जाते हैं।
मैं उन्हें पकड़ता हूँ
सँवारता हूँ,
कभी अपनी उँगलियों से
कभी एक बेचैन ख़्याल से,
तो कभी बस यूँ ही
उन्हें बहने देता हूँ,
जैसे बारिश की बूँदें
छत पर गिरकर ख़ुद-ब-ख़ुद,
रास्ता बना लेती हैं।
रचना बनती नहीं
घटती है,
किसी हलचल की तरह
किसी चुप्पी की तरह,
जो देर से घुट रही होती है
मन की तहों में।
कागज़ नहीं पूछता
शब्दों की उम्र,
बस समेट लेता है
हर एहसास,
हर छुअन
हर दरार,
जो शायद
ख़ुद मैंने भी कभी महसूस न की हो।
रचना प्रक्रिया
एक नदी है,
जो अपने किनारे ख़ुद बनाती है
अपने रास्ते ख़ुद चुनती है,
कभी शोर में
तो कभी मौन की सतह पर।
गहरी,
अथाह
और अनवरत॥
डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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