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भारत का माटी स्वयं सोना ,

भारत का माटी स्वयं सोना ,

जन सोने में सोना ढूॅंढ़ रहे ,
जिसने माटी सोना बनाया ,
उसी को देख जन कूढ़ रहे ।
भारत का माटी स्वयं सोना ,
सोना देख सबका है रोना ,
सोना छूते ये हो जाए माटी ,
चमचा बनकर तलवा चाटी ।
भारत को बनाया है महान ,
पर निज सदैव जो दृढ़ रहे ,
भारत का माटी स्वयं सोना ,
जन सोने में सोना ढूॅंढ़ रहे ।
पथगामी को जिसने कोसा ,
राष्ट्रहेतु उसका क्या भरोसा ,
नहीं कदम कभी बढ़े ठोसा ,
उल्टा संस्कृति जो है पोसा ।
उल्टे देते उसको सब दोष ,
जो कदम सार्थक गूढ़ रहे
भारत का माटी स्वयं सोना ,
जन सोने में सोना ढूॅंढ़ रहे ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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