चमक दमक थी चंद दिनों की,
अंत भी पहले जैसा होगा।नंगे बदन पधारे थे जग में,
अब जाना भी ठीक वैसे ही होगा ।।
कैसे मुरख प्राणी हो तुम,
सत्य कभी न समझ पाये।
क्षणिक सुख के फेरे में पड़,
अपना बहुमूल्य जीवन गंवाये।।
जाना था जो साथ तुम्हारे,
उसको नहीं बटोरा।
छुटना था जो तेरे घर में,
जीवन भर कौड़ी कौड़ी जोड़ा।।
कद्र नहीं किया उन सबका,
जो थे सच्चे साथी।
अच्छे लगते थे वो तुमको,
जिन्होंने की ठकुरसुहाती ।।
पेड़ से गिरे सूखे पत्ते जैसा,
कुचला उन्हें, दिये कभी जो साया।
एक दिन तुम भी कुचले जाओगे,
तब यह समझ न आया।।
समय और नदिया की धारा,
निरंतर बहती जाती है।
कुछ भी यहाँ टिकाऊ नहीं है,
सत्य का ज्ञान कराती है।।
कितना भी तुम गंदा कर लो,
बहता पानी निर्मल है।
तन के साथ मन को भी धो लो,
क्योंकि, तन मन दोनों अविरल है।।
यह जग तेरा कर्म क्षेत्र है,
धर्म ध्वजा फहराओ।
चमक दमक का मोह छोड़ कर,
श्रीहरि चरणों में नेह लगाओ।।
जय प्रकाश कुवंर
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