द्रौपदी का वटुआःरहस्यमय सूर्यसाधना
कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
द्रौपदी का वटुआ—एक सुप्रसिद्ध लोकोक्ति है, किन्तु इसमें छिपे रहस्यमय सूर्य-साधना की सुगन्ध से समाज बिलकुल अपरिचित है। विद्वतजन भी इस ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिए शायद, तभी तो कथा-प्रसंग मात्र लोकोक्ति में सिमटा रह गया और इसका लोकोपयोगी एवं लोककल्याणकारी पक्ष अनावृत ही रह गया।
द्रौपदी का वटुआ—पौराणिक कथाओं के अनुसार इसे एक अक्षयपात्र के रूप में जाना जाता है। लोकोक्ति में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसके सम्बन्ध में सामान्य जन बस इतना ही जानते हैं कि द्रौपदी के वटुए में चिपके अन्न के एक मात्र कण को अपने मुँह में डालकर, लीलापुरुषोतम द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने सहस्रों शिष्य-मण्डली सहित महर्षि दुर्वासा को तृप्त करके, उनका कोपभाजन बनने से वनवासी पाण्डवों को बचा लिया था और इसके परिमामस्वरूप गान्धार नरेश सुबलपुत्र कपटाधीश शकुनि का एक अति घातक दाव निष्फल हो गया था। विस्तृत कथा प्रसंग महाभारत, वनपर्व अध्याय २६२-२६३ में द्रष्टव्य है।
किन्तु यहाँ हम उस विस्तृत कथा का सूत्रधार—द्रौपदी के उस रहस्यमय अक्षयपात्र प्राप्ति की चर्चा करना चाहते हैं। ये प्रसंग महाभारत, वनपर्व के तीसरे अध्याय में ही है। इस अध्याय के श्लोकसंख्या १६ से २८ तक सूर्य के १०८ नामों की चर्चा करके, आगे के तीन श्लोकों में सूर्योपदेश का उपसंहार किया है धर्मराज युधिष्ठिर के तात्कालिक पुरोहित ऋषि धौम्य ने, जो वनवास काल में भी निरन्तर उनके सम्पर्क में थे।
राजसूययज्ञ में इन्द्रप्रस्थ राज्य-वैभव-लक्ष्मी की चकाचौंध और ईर्ष्यादग्ध दुर्योधन की तुष्टि हेतु, श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में शकुनि द्वारा द्यूतक्रीड़ा की योजना बनायी गई।
उक्त द्यूतक्रीड़ा और द्रौपदी चीरहरण के पश्चात् गान्धारी के भविष्य-संकेत—द्रौपदी शाप से भयभीत पुत्र मोहान्ध धृतराष्ट्र द्वारा द्यूत-लब्ध राज्यादि यथावत वापस कर देने से खिन्न दुर्योधनादि आहूत द्वितीय द्यूतक्रीड़ा में पुनः शकुनि के छल और दुर्योधन की दुष्टता का शिकार होकर द्रौपदी सहित पाँचो पाण्डव वनवास झेल रहे थे।
उस वनवास काल में भी धर्मराज युधिष्ठिर के स्नेह-बन्धन से विप्रमण्डली सहित सहस्रों नागरिक मुक्त नहीं होना चाहते थे। जबकि प्रजाजनों का ये स्नेहिल बन्धन युधिष्ठिर के सामने धर्मसंकट उपस्थित कर दिया था।
ऐसी विकट परिस्थिति में उन्होंने महर्षि शौनकजी से जिज्ञासा की इस आसन्न संकट के निवारण हेतु। शौनकजी ने उन्हें अपने पुरोहित ऋषि धौम्यजी से इस सम्बन्ध से समुचित उपदेश लेने का सुझाव दिया।
ऋषि धौम्यजी ने भुवनभास्कर सूर्यनारायण की महिमा और साधना विधि सहित श्री सूर्य अष्टोत्तरशतनमावली का उपदेश किया, जिसका सम्यक् अनुष्ठान करके धर्मराज युधिष्ठिर ने जगत-जीवनदाता साक्षात सूर्यनारायण का दर्शन किया और उनसे एक ऐसा पात्र (वटुआ) प्राप्त किया, जिसमें पकाया हुआ अन्न तब तक समाप्त नहीं होता था, जबतक पकाने वाला व्यक्ति स्वयं भोजन न कर ले। इतना ही नहीं इस अक्षयपात्र से अन्यान्य सांसारिक वांछाओं की भी पूर्ति सम्भव है—ऐसा जगत्प्रसूती सूर्य ने आश्वासन दिया था।
किन्तु ध्यान रहे—सांसारिक कामनायें अनन्त हैं, जिनमें ज्यादातर व्यक्तिगत स्वार्थान्ध और परहित विपरीत ही होती हैं। लोकहित भी गौण हो जाता है निजहित के हस्तिपाददृष्टि के कारण। यहाँ तक कि स्वयं को थोड़ा नुकसान पहुँचाकर, दूसरे को विशेष नुकसान पहुँचाने को भी हम तत्पर हो जाते हैं।
ध्यातव्य है कि स्वार्थान्ध साधना सात्विक भाव से न होकर, राजसी ही नहीं प्रत्युत तामसी भाव से होने लगती है। ऐसे में सफलता संदिग्ध होती है या मिलती भी है तो भस्मासुर के वरदान की तरह —स्वयं के लिए ही अनिष्टकारी सिद्ध होती है।
ज्ञातव्य है कि इस द्वापरयुगीन सूर्य-साधना को इस घोर कलिकाल में भी प्रयोग करके, लाभान्वित हुआ जा सकता है—संयमित सात्विक आहार-विहार-व्यवहार का सम्यक् पालन करते हुए।
मूलतः क्रिया तो बहुत छोटी सी है, किन्तु यम-नियम-संयम सहित अलोन (बिना नमक के) भोजन करते हुए, सूर्य की बारहों संक्रान्तियाँ व्यतीत करनी होती है। यानी सूर्य की मेषसंक्रान्ति से अनुष्ठान प्रारम्भ करके, पुनः मेषसंक्रान्ति (सूर्य-संचरण) के दिन समाप्त करनी होती है।
ध्यातव्य है कि कठोर ब्रह्मचर्य सहित नमक-तेल की वर्जना इन्द्रियलोलुप कलिकाल के प्राणी के लिए सर्वाधिक कष्टप्रद है।
अतः योग्य सूर्य-साधक (सूर्यतन्त्र विशेषक्ष) से विधिवत उपदेशित होकर ही इस अनुष्ठान में लगना श्रेयस्कर होगा। अन्यथा लाभ के विपरीत हानि ही होगी।
कलिमल ग्रसित विकृत आहार-विहार-व्यवहार वाले को ये कठोर सूर्य-साधना कदापि फलित नहीं हो सकती। स्पष्ट है कि फल प्राप्ति नहीं होने पर निराशा, अविश्वास और अश्रद्धा उत्पन्न होगी साथ ही सत्शास्त्र की मानहानी भी होगी ही । अस्तु।
श्री सूर्य अष्टोत्तरशतनमावलीस्तोत्रम्
धौम्य उवाच—
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः ।
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः ।।
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम् ।
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च ।।
इन्द्रो विवस्वान् दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः ।।
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः ।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः ।।
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलि सर्वमलाश्रयः ।
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः ।।
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः ।।
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः ।
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा ।।
भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोक नमस्कृतः ।
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः ।।
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः ।
जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता ।।
मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राण धारकः ।
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः ।।
द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः ।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ।।
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः ।
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय करुणान्वितः ।।
एतद् वै कीर्तिनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः ।
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत् स्वयंभुवा ।।
सुरगणपितृयक्षसेवितं
ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम् ।
वरकनकहुताशनप्रभं
प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम् ।।
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्
स पुत्रदारान् धनरत्नसंचयान् ।
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा
धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान् ।।
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः
प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः ।
विमुच्यते शोकदवाग्निसागरा- ल्लभेत कामान् मनसा यथेप्सितान् ।।
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