मेरे मित्र जीवन
सौभाग्य कहूॅं दुर्भाग्य कहूॅंया जीवन को लाचार कहूॅं ।
तू ही बता मेरे मित्र जीवन ,
तुझे कौन सा आचार कहूॅं ।।
भाजक कहूॅं भागफल कहूॅं ,
या जीवन तुझे भाज्य कहूॅं ।
अभी बचा है शेषफल तेरा ,
या पूरा पूरा विभाज्य कहूॅं ।।
हो नहीं सकते तू सच्चे मित्र ,
बेवफा सदा तू कहलाते हो ।
एक से तुम तो जुदा होकर ,
दूसरे पे वफाई दिखलाते हो ।।
ये दिल बेवफा दौड़ते दौड़ते ,
मुझपर ही यह तो दौड़ चला ।
समझ नहीं पाया मैंने इसको ,
मैंने समझा कोई और चला ।।
अबतक मैं करता रहा संघर्ष ,
किंतु अब तो मैं हार चुका हूॅं ।
धैर्य सहनशीलता को खोकर ,
अपने मन को मार चुका हूॅं ।।
साहित्य ही रहा मेरा साध्य ,
मैं साहित्य का सदैव साधक ।
लगता अब रुकेगी यह नैया ,
दिल का दौरा हुआ बाधक ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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