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रेल का सफर

रेल का सफर

- मनोज कुमार मिश्र
रेल का सफर
खिड़कियां दिखा रहीं
पटरियों के बगल
में भागती पटरियां
बाजू में सूखे खेत
कुछ बिना हरीतिमा
के पहाड़
वहां तक जाती
पगडंडिया बता रहीं
आदमी आता तो है
जाता तो है
पर है बेखबर बेफिक्र
मुझे क्या!!
मैने तो काट ली
बची खुची भी
कट जाएगी
मुझे क्या!!
सोचता नहीं
कि इसे हरा
कर दूं
इसके सूखे सूने
आँचल में कुछ
रंग भर दूं!
तब शायद ये भी
बोल पाएंगी
अपने दिल का
दर्द सुनाएंगी
हमारे दुख को भी
सुन पाएंगी!!
आखिर कभी तो
हरी ही थीं
कितना दिया
कभी उफ्फ न किया
जब काट डाले
तुमने उसके जने
कुछ आड़े तिरछे
कुछ तने तने
वीरान कर दिया
सब यहां से वहां
लिया उससे भी अधिक
जितनी थीं
मजबूरियां!!
बस ललक कि
मैं उससे उससे
ज्यादा ले लूं
बोई है तुमने ही ये
वीरानियाँ!!
अब धूप पानी
भोजन की परेशानियां
शिकायत करोगे किससे
मशहूर हैं यहाँ
तुम्हारे हिस्से के चर्चे
इंसान बन कर
रहते तो कितना
अच्छा होता
न ये जमीं
सूखती न बादल
मुरझाया होता
वक्त है वक्त को
थाम लो
जो लिया है बेदर्दी से
उसे लौटाने का
नाम लो
तितलियों की
चमन में फिर
कमी न होगी
खिलेंगी किलकारियां
खुशियाँ बसर होंगी!!- मनोज कुमार मिश्र
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