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मृगतृष्णा के पार

मृगतृष्णा के पार

अपनी इच्छाओं के ये बोझे तू कम कर दे मनवा,
माया की मृगमारिचिका के पीछे भटकता रहेगा।
सुख की चाह में दुःख को गले लगाए फिरता है,
अपनी ही छाया से भागे, भ्रम में दिन गंवाए फिरता है।


सुन रे मन, यह दौड़ अनंत, कोई अंत नहीं इसका,
चाहतों की आग में जलकर चैन नहीं दिखता।
जिस पल को पकड़ने चला, वह रेत-सा फिसल गया,
हर सुख की चौखट पर, नया दर्द भी पल गया।


सोने के सपनों के पीछे दौड़ चला मन ये बावरा,
हर चमकती चीज़ सोना नहीं, मन तू समझ जरा।
जो मिला उसे संजो, जो नहीं वह जाने दे,
हर लहर संग चल, तट को भूल जाने दे।


तेरा असली धन तो तेरा प्रेम और संतोष है,
सच की राहों पर चल, यही तेरा प्रकाश है।
मृगतृष्णा के पार जहां तृप्ति की छाया है,
वही असली सुकून, वही सच्ची माया है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित


"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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