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शब्दों के पार

शब्दों के पार

दुनिया हमारे लिखे शब्दों में,
छिपे अर्थ तलाशती रही,
हर अक्षर की परछाई में,
अपनी सोच मिलाती रही।


पर नेपथ्य में जो छिपी थीं,
भावनाएँ मूक खड़ी,
उनको सुनने की फुर्सत किसे थी?
हर नज़र रही संदेह भरी।


रिश्ते अब सवालों में घिरे,
हर प्रेम पर पर्दा पड़ा,
निश्चल भावनाओं को भी,
हर मन ने संदेह से तौला।


क्यों अब विश्वास की डोरी,
इतनी कमज़ोर पड़ गई?
क्यों हर अपनापन भी,
परीक्षा की कसौटी बन गई?


कभी जो नज़रों की चुप्पी में,
स्नेह का संचार था,
आज वही चुप्पी,
रहस्यों का व्यापार बना।


कभी जो आँखों की चमक में,
विश्वास झलकता था,
आज वही चमक,
संदेह की छाया में ढलता है।


क्या रिश्ते अब बस अनुबंध हैं?
या कोई सौदेबाज़ी की कथा?
जहाँ हर भावना से पहले,
खड़ी हो संदेह की व्यथा।


कभी जो प्रेम का स्पर्श,
मन को तृप्त करता था,
आज वही स्पर्श,
शंका में उलझा रहता है।


हमने रिश्तों को क्यों इतना,
भारी कर दिया प्रश्नों से?
जहाँ हर अपनापन भी,
गवाही माँगता है तर्कों से।


शब्दों से परे, नेपथ्य में,
अब भी भावनाएँ जीवित हैं,
बस उन्हें संदेह के शोर में,
कहीं सुनना बाकी है...


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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