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मज़हब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना

मज़हब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना

  • जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब की हिंदू नीति |
  •  शाहजहाँ ने रख लिया था अपना नाम द्वितीय तैमूर|

डॉ राकेश कुमार आर्य
शा हजहाँ ने अपना नाम द्वितीय तैमूर भी रख लिया था। इसके पीछे उसका कारण केवल यही था कि वह तैमूर की क्रूरता व निर्दयता को अपना आदर्श मानता था और उसने उसी प्रकार के आचरण और व्यवहार को अपने जीवन का श्रृंगार बनाकर उसे हिन्दुओं के प्रति व्यावहारिक जीवन में अपनाया था। अपने आपको द्वितीय तैमूर के नाम से पुकारने में उसे आनन्द आता था। इस तथ्य का पता हमें 'दी लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इण्डिया, डॉ. के.एस. लाल, 1992 पृष्ठ- 132 से चलता है।

जब हिन्दुओं की महिलाओं से मौज मस्ती करने को मजहब का अधिकार पत्र मिलता हो और जब उन्हें केवल अपनी खेती समझने का भूत सिर पर सवार हो तो यौवन में कौन ऐसा मुसलमान होगा जो इन सब चीजों का आनन्द लेना नहीं चाहेगा? – निश्चय ही अपनी किशोरावस्था से ही शाहजहाँ हिन्दू अर्थात् काफिरों के प्रति घृणा से पूर्णतया भर गया था।

इतिहासकारों ने लिखा है कि शहजादे के रूप में ही शाहजहाँ ने फतेहपुर सीकरी पर अधिकार कर लिया था और आगरा शहर में हिन्दुओं का भीषण नरसंहार किया था।

निश्चय ही शहजादा ने ऐसा कार्य काफिरों के नरसंहार करने में मिलने वाले आनन्द को अनुभव करने के लिए ही किया था, जिससे कि वह गाजी बन सके और उसे जन्नत में जाने का अधिकार प्राप्त हो सके।

उस समय भारत की यात्रा पर इटली से एक देला वैले नामक धनी व्यक्ति आया था। उसने बहुत कुछ ऐसे संस्मरण लिखे हैं, जिनसे समकालीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। उसने शाहजहाँ के बारे में लिखा है कि शाहजहाँ की सेना ने भयानक बर्बरता का परिचय कराया था। हिन्दू नागरिकों को घोर यातनाओं द्वारा अपने संचित धन को दे देने के लिए विवश किया गया, और अनेकों उच्च कुल की कुलीन

(कीन्स हैण्ड बुक फॉर विजिटर्स टू आगरा एण्ड इट्स नेबरहुड, 25)

बादशाहनामा में लिखा था- महामहिम शहंशाह महोदय की सूचना में लाया गया कि हिन्दुओं के एक प्रमुख केन्द्र, बनारस में उनके अब्बा हुजूर के शासनकाल में अनेकों मन्दिरों के पुनः निर्माण का काम प्रारम्भ हुआ था और काफिर हिन्दू अब उन्हें पूर्ण कर देने के निकट आ पहुँचे हैं।

इस्लाम पंथ के रक्षक, शहंशाह ने आदेश दिया कि बनारस में और उनके सारे राज्य में अन्यत्र सभी स्थानों पर जिन मन्दिरों का निर्माण कार्य आरम्भहै, उन सभी का विध्वंस कर दिया जाए।

इलाहाबाद प्रदेश से सूचना प्राप्त हो गई कि जिला बनारस के छिहत्तर मन्दिरों का ध्वंस कर दिया गया था।

(बादशाहनामा : अब्दुल हमीद लाहौरी, अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VII, पृष्ठ 36)

हिन्दू मंदिरों को अपवित्र करने और उन्हें ध्वस्त करने की प्रथा ने शाहजहाँ के काल में एक

(मध्यकालीन भारत हरिश्चंद्र वर्मा पेज-141)

कश्मीर से लौटते समय 1632 में शाहजहाँ को बताया गया कि अनेकों मुस्लिम बनायी गयी महिलायें फिर से हिन्दू हो गई हैं और उन्होंने हिन्दू परिवारों में शादी कर ली है।

इतिहास के शोधार्थियों का निष्कर्ष है कि "शहंशाह के आदेश पर इन सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लिया गया। प्रथम उन सभी पर इतना आर्थिक दण्ड थोपा गया कि उनमें से कोई भुगतान नहीं कर सका।

तब इस्लाम स्वीकार कर लेने और मृत्यु में से एक को चुन लेने का विकल्प दिया गया। जिन्होंने धर्मान्तरण स्वीकार नहीं किया, उन सभी पुरुषों का सर काट दिया गया। लगभग चार हजार पाँच सौ महिलाओं को बलात् मुसलमान बना लिया गया और उन्हें सिपहसालारों, अफसरों और शहंशाह के नजदीकी लोगों और शहंशाह के नजदीकी लोगों और रिश्तेदारों के हरम में भेज दिया गया।

(हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल: आर.सी मजूमदार, भारतीय विद्या भवन, पृष्ठ 312)

1657 में शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसी के बेटे औरंगजेब ने उसे उसकी रखैल जहाँआरा के साथ आगरा के किले में बन्द कर दिया। औरंगजेब ने एक आदर्श बेटे का भी फर्ज निभाया और अपने बाप की कामुकता को समझते हुए उसे अपने 40 रखैलें रखने की इजाजत दे दी और दिल्ली आकर उसने बाप की हजारों रखैलों में से कुछ गिनी चुनी औरतों को अपने हरम में डालकर शेष सभी को उसने किले से बाहर निकाल दिया।

कहा जाता है कि औरंगजेब के द्वारा भगाई गई उन हजारों महिलाओं को भी दिल्ली के उसी हिस्से में शरण मिली, जिसे आज दिल्ली का रेड लाईट एरिया जीबी रोड कहा जाता है। इस प्रकार जी०बी० रोड का यह क्षेत्र शान्ति के पुजारी और स्वर्ण युग को भारत में स्थापित करने वाले शाहजहाँ की ही एक ऐसी देन है, जो उसके शासनकाल में नारियों की दयनीय स्थिति को आज भी स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। इतिहासकारों ने जहाँ ताजमहल और लालकिले को बनाने का झूठा श्रेय शाहजहाँ को दिया है, वहाँ किसी ने भी इस सच को स्पष्ट करने का नैतिक साहस नहीं दिखाया कि जी०बी० रोड पर जो कुछ आज तक होता रहा है वह भी शाहजहाँ की ही देन है।

जो बताते ताज को विरासत मुगलिया काल की,
बड़ी शान से लिखते कहानी जो किले लाल की।
कौन उनमें से लिखेगा हालत इस जीबी रोड की,
जहाँ नीलाम होती इज्जतें औरत के इकबाल की ।।

शाहजहाँ की मृत्यु आगरे के किले में ही 22 जनवरी 1666 ईस्वी में 74 वर्ष की अवस्था में 'द हिस्ट्री चैनल' के अनुसार अत्यधिक कामोत्तेजक दवाएं खा लेने के कारण हुई थी।

औरंगज़ेब का आतंकी शासन

औरंगजेब का इतिहास में एक क्रूरतम मुगल बादशाह के रूप में स्थान है। उसने हिन्दुओं के प्रति मजहबी क्रूरता और निर्दयता की सभी सीमाएँ पार कर दी थीं। यद्यपि वामपंथी और मुस्लिम इतिहासकारों की दृष्टि में उसे भारत के उदारतम शासकों में से एक माना गया है और ऐसे प्रयास किए गए हैं कि उसकी क्रूरता और निर्दयता को उसकी तथाकथित उदारता के समक्ष नगण्य कर दिया जाए। मुगल काल के इस शासक ने 1658 से लेकर 1707 ईस्वी तक शासन किया। उसने अपनी सारी राजनीतिक व्यवस्था को इस्लामिक चोला पहनाने का हरसम्भव प्रयास किया। यही कारण था कि उसने अपने कानून को भी फतवा -ए-आलमगीरी' का नाम दिया। इस 'फतवा ए- आलमगीरी ना मक कानून में शरीयत की वे सारी व्यवस्थाएँ सम्मिलित की गई थीं जो गैर मुस्लिमों के प्रति शासक को अत्याचार करने की खुली छूट प्रदान करती हैं। फतवा - ए - आलमगीरी की इन व्यवस्थाओं के चलते भी जिन इतिहासकारों ने औरंगजेब के शासन को भारत के लिए वरदान सिद्ध करने का प्रयास किया है, उनके ऐसे प्रयासों पर सचमुच तरस आता है।

औरंगजेब ने अपनी इस शरीयती कानून व्यवस्था के अनुसार शासन करते हुए गैर-मुस्लिमों के अधिकार अत्यंत सीमित कर दिए। इस व्यवस्था को लागू होते ही मुस्लिमों को हिन्दुओं की संपत्ति पर जबरन कब्जा कर लेने, स्त्रियों को गुलाम बना लेने आदि जैसे कई अधिकार भी प्राप्त हो गए।

हिन्दुओं का उत्पीड़न करने और उन्हें मुस्लिम बनाने के दृष्टिकोण से औरंगजेब ने गैर मुस्लिम प्रजाजनों पर असीमित अत्याचार किए। उनके साथ असमानता का बर्ताव किया गया। मुस्लिमों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान की गईं और काफिरों के मौलिक अधिकारों का हनन किया गया। सन् 1665 से हिन्दू व्यापारियों से दोगुनी चुंगी वसूली जाने लगी और मुस्लिम व्यापारियों के लिए चुंगी माफ कर दी गई। सन् 1679 में औरंगजेब ने हिन्दुओं पर 'जजिया' कर लागू किया। यह जजिया कर वास्तव में हिन्दुओं का खून निचोड़ने का एक ऐसा यन्त्र था, जिसे प्रत्येक मुस्लिम बादशाह या सुल्तान ने अपने शासनकाल में उन पर लगाया था। औरंगजेब के शासनकाल में तो इसे और भी अधिक निर्दयता के साथ लागू किया गया। जिससे उनकी हड्डियों तक से रक्त निचोड़ लिया जाए अर्थात् उनकी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन व्यवस्था को पूर्णतया नष्ट अष्ट कर दिया जाए और उन्नति के सभी मार्ग अवरुद्ध कर दिए जाएँ।

औरंगजेब अपने अधिकारियों पर भी पूर्ण निगरानी रखता था, जिससे कि वह उसकी हिन्दू प्रजा के साथ किसी प्रकार की उदारता का व्यवहार न कर सकें। यदि कोई अधिकारी हिन्दुओं के प्रति उदारता का व्यवहार करता हुआ पाया जाता था तो उसके साथ भी कठोर यातना भरी कार्यवाही की जाती थी। हिन्दुओं को धार्मिक उत्पीड़न का शिकार बनाते हुए औरंगजेब ने उनके सभी धार्मिक त्योहारों को मनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। दीपावली सहित कोई भी धार्मिक त्योहार हिन्दू अब मना नहीं सकते थे। हिंदुओं के धार्मिक आयोजनों को भी उसने बन्द करवा दिया था। इतना ही नहीं हिन्दू प्रजा में हीन भावना उत्पन्न करने के दृष्टिकोण से औरंगजेब ने हिन्दुओं के पालकियों में बैठने या हाथियों व अरबी घोड़ों की सवारी करने का अधिकार भी उनसे छीन लिया था।

किया धर्म स्थलों का विध्वंस

औरंगजेब ने हिन्दुओं के धर्म स्थलों का विध्वंस करने में भी गहरी रुचि दिखाई थी। वह हिन्दुस्तान को दारुल इस्लाम में परिवर्तित कर देना चाहता था। इस दृष्टिकोण से हिन्दू धर्म-स्थल उसकी आँखों में काँटे की भाँति चुभते थे। अपने इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए औरंगजेब ने हिन्दू धर्म स्थलों का विध्वंस कराना अपनी सरकारी नीति का एक अंग ही बना लिया था।

हिंदुओं की आस्था का नहीं दीखा मोल।

मसल दई पैरों तले, रोकर बजते ढोल ।।

12 सितंबर 1667 को उसने दिल्ली के कालकाजी मन्दिर का विध्वंस करने का सरकारी अर्थात् शाही फरमान जारी किया था। समकालीन लेखकों, इतिहासकारों के विवरण से जानकारी मिलती है कि 9 अप्रैल 1669 को उसने अपने राज्य के सभी हिन्दू मन्दिरों व हिन्दू पाठशालाओं को तोड़ देने का आदेश दिया था। ऐसा करने का उद्देश्य केवल यह था कि हिन्दू जब अपने धर्म स्थलों में नहीं जा सकेंगे तो वह देर सवेर इस्लाम की शरण में आने के लिए बाध्य हो जाएँगे। जिससे सारे भारतवर्ष में इस्लाम का तेजी से प्रचार-प्रसार होने में सहायता मिलेगी। इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म स्थलों के विध्वंस का एक कारण यह भी था कि ईश्वर या अल्लाह मन्दिरों में नहीं मस्जिदों में रहता है और कुरान पाक द्वारा उसे प्राप्त करने की जो व्यवस्था बताई गई है वहीं अंतिम है। उसके अतिरिक्त यदि कोई अन्य मज़हब का व्यक्ति अपनी मज्जहबी प्रार्थना करता है तो वह पूर्णतया अनुचित है।

मथुरा के प्रसिद्ध मन्दिर को तोड़ा गया

औरंगजेब को यह भली प्रकार जानकारी थी कि उसके पूर्वज बाबर ने किस प्रकार 1528 ई0 में भारतीय इतिहास के महानायक श्री रामचन्द्र जी के मन्दिर को अयोध्या में तुड़वाया था। अब उसे भी मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय होने के लिए मथुरा में श्री कृष्ण के भव्य मन्दिर को तोड़ने का विचार आया। जिससे वह भी उतना ही पुण्य लाभ अर्जित कर सके जितना उसके पूर्वज बाबर को श्री रामचन्द्र जी के मन्दिर को तोड़ने से मिला था।

अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए औरंगजेब ने जनवरी 1670 में मथुरा के प्रसिद्ध केशव राय मन्दिर को नष्ट करके वहाँ एक मस्जिद बनवायी थी। इस घटना को इतिहास में बहुत छोटी सी घटना के रूप में उल्लेखित किया गया है। जबकि श्री रामचन्द्र जी के अयोध्या स्थित मन्दिर को तोड़ने के बाद की भारतीय इतिहास की यह बहुत महत्वपूर्ण घटना थी। क्योंकि भारतीय इतिहास के इन दोनों महानायकों अर्थात् श्री रामचन्द्र जी और श्री कृष्ण जी के प्रति भारत की जनता असीम श्रद्धा भाव रखती थी और उन्हें भगवान के रूप में पूजती थी।

अपने इन दोनों इतिहासनायकों के साथ मुगल बादशाहों के द्वारा किए गए इस प्रकार के अपमानजनक व्यवहार को देश का हिन्दू मानस कभी भूल नहीं पाया। वह रह-रहकर अपने आक्रोश और क्षोभ को व्यक्त करता रहा और जब जब उसे कहीं पर भी अवसर मिला तो उसने मुस्लिमों के विरुद्ध अपना आक्रोश और क्षोभ व्यक्त करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। हिन्दुओं के भीतर अपमान और तिरस्कार का भाव भरा हुआ था और वह उसे समय-समय पर व्यक्त करने से चूकते नहीं थे। इतिहास लेखकों की दुष्टता ने कभी मुगल बादशाहों के इन अत्याचारों का उल्लेख तो नहीं किया पर उन्होंने बार-बार हिन्दुओं के आक्रोश और क्षोभ को साम्प्रदायिक आक्रोश व क्षोभ के रूप में अवश्य व्यक्त करने का प्रयास किया है। जबकि सच यह था कि मुगलों के अपमानजनक व्यवहार से उत्पीड़ितु हिन्दू जनमानस अपना आक्रोश और क्षोभ अपनी कुण्ठा को व्यक्त करते हुए करता था। जिससे देश में साम्प्रदायिक दंगों का क्रम चलता रहा।

भारतीय जनमानस में वाराणसी के श्री विश्वनाथ मन्दिर के प्रति भी असीम श्रद्धा प्रारम्भिक काल से ही रही है। औरंगजेब ने हिन्दुओं की आस्था के इस परम केन्द्र को भी नष्ट करने का मन बना लिया था। क्योंकि वह हर स्थिति में हिन्दुओं के मर्म पर प्रहार करने की योजनाएँ बनाता था, जिससे कि हिन्दू अत्यधिक दुखी हों। फलस्वरूप उसने मथुरा के मन्दिर के विध्वंस के कुछ समय पश्चात् वाराणसी के श्री विश्वनाथ मन्दिर और सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर को ढहाने का आदेश भी जारी किया। काशी विश्वनाथ के इस मन्दिर के विध्वंस के पश्चात् हिन्दू जनता बहुत अधिक बेचैन हो गई थी। उसने अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेने का बार-बार प्रयास किया था।

वामपंथी और कांग्रेसी इतिहासकारों की दृष्टि में भारतवर्ष के उदार बादशाह औरंगजेब ने राजस्थान की हिन्दू जनता को भी अपने धार्मिक उत्पीड़न का शिकार बनाया था। राजस्थान के उदयपुर और मारवाड़ के क्षेत्र में हिन्दुओं के लगभग 300 मन्दिर उसकी धार्मिक नीति का शिकार हुए। जिस कारण उसने 1679 में अपना एक शाही फरमान जारी कर इन सभी हिन्दू मन्दिरों के विध्वंस करने का निर्णय लिया। हिन्दू मन्दिरों की रक्षा करते हुए अनेकों हिन्दुओं ने अपने बलिदान दिए, परन्तु वे क्रूर औरंगजेब की निर्दयी तलवार का अधिक देर तक सामना नहीं कर पाए, फलस्वरूप बादशाह के सैनिक इन सभी मन्दिरों को तोड़ फोड़कर नष्ट करने में सफल हो गए। औरंगजेब के आदेश से ही चित्तौड़ में 63 मन्दिरों को ढहा दिया गया था।

सर्वत्र मन्दिर नष्ट किए जाते रहे

यदि औरंगजेब के शासनकाल और उसकी धार्मिक नीति की समीक्षा की जाए तो पता चलता है कि उसने भारत को हिन्दूविहीन और हिन्दू धर्म स्थलों से शून्य कर देने के हर उपाय पर विचार किया। वह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उस समय एक मन्दिर-भक्षी की भाँति शिकार करता हुआ घूम रहा था। जहाँ भी उसे यह पता चलता था कि अमुक स्थान पर हिन्दुओं के अमुक महापुरुष के द्वारा स्थापित कोई धर्म स्थल है तो वह वहाँ फुफकारते हुए नाग की भाँति जा खड़ा होता और उसे नष्ट करवा डालता।

पसरा मातम देश में खुशी चली गई दूर।

मानो हमसे खो गया दिल का कोहिनूर ।।

अपनी इसी नीति पर चलते हुए औरंगजेब ने 1 जून 1681 को उड़ीसा के पवित्र जगन्नाथ मन्दिर को पूर्णतः नष्ट कर देने का सरकारी आदेश जारी किया। जिन लोगों ने औरंगजेब के इस आदेश का विरोध किया उन्हें तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया। इसके अतिरिक्त उनके विरुद्ध वे सारे अत्याचार किए गए जो इस्लाम में गाजी पद पाने या इस्लाम की खिदमत करने के लिए किए जाने हेतु न्याय संगत माने गए हैं।

औरंगजेब की कोपदृष्टि से दक्षिण भारत के हिन्दू धर्म स्थल भी बच नहीं पाए थे। सितम्बर 1681 ईस्वी में जब औरंगजेब ने अपनी कथित विजयों के लिए दक्षिण अभियान पर चलने का निर्णय लिया तो उस समय भी उसने अपने सैनिकों व सेनापतियों को यह आदेश जारी कर दिया था कि मार्ग में जितने भी हिन्दू धर्म स्थल पड़ते हैं उन सबको नष्ट कर दिया जाए और उनका विरोध करने वाले काफिरों को भी निर्ममता के साथ मौत के घाट उतार दिया जाए।

सितम्बर 1682 में उसने बनारस के प्रसिद्ध बिन्दु-माधव मन्दिर को तोड़ने का आदेश भी जारी किया।

इस प्रकार औरंगजेब ने अपनी धार्मिक कट्टरता का परिचय देते हुए भारतवर्ष के अनेकों हिन्दू मन्दिरों को भी नष्ट करवाया और उनके स्थान पर मस्जिदें खड़ी करवा दीं। उसे हिन्दू धर्म स्थलों के विनाश में एक बहुत ही गहरी आनन्दानुभूति होती थी। जिसे अनुभव करने के लिए वह बार-बार ऐसा करता था। वह अपने आपको इस्लाम का सेवक मानता था। इस्लाम की इससे बड़ी कोई सेवा नहीं हो सकती कि काफिरों के धर्म स्थलों का विनाश किया जाए और उनका जबरन धर्मांतरण कर इस्लाम का प्रचार प्रसार और विस्तार किया जाए। अपने आपको इस्लाम का सेवक सिद्ध करने के दृष्टिकोण से उसने इस्लाम की इस प्रकार की सेवा करने को अपना जीवन व्रत बना लिया था।

हिन्दुओं की दृष्टि में औरंगजेब आज भी खलनायक है


यही कारण है कि वह इस्लाम के मानने वालों की दृष्टि में आज भी एक बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का शासक है, जबकि उसके अत्याचारों को सहन करने वाले हिन्दुओं की दृष्टि में वह आज भी एक कट्टर असहिष्णु और अत्याचारी शासक है। भारत में एक वर्ग की दृष्टि में औरंगजेब इतिहास का नायक है तो दूसरे की दृष्टि में वह इतिहास का खलनायक है। दृष्टिकोण के इस अन्तर के कारण भी भारत में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं।

औरंगजेब का तत्कालीन हिन्दू समाज ने बहिष्कार कर दिया था। उसके प्रति घृणा का भाव सर्वत्र पाया जाता था। चाहे पंजाब के सिक्ख हों (हमने यहाँ पर पंजाब के सिक्ख गुरुओं के साथ औरंगजेब के द्वारा किए गए अत्याचारों का जानबूझकर उल्लेख नहीं किया है, क्योंकि उसकी सिक्खों के प्रति नीति पर तो बहुत कुछ पढ़ने को प्राप्त हो जाता है) और चाहे आसाम के अहोम शासक हों, सभी के भीतर उसके प्रति गहरी घृणा का भाव था। गहरी घृणा का यह भाव केवल साम्प्रदायिक आधार पर नहीं था बल्कि यह इसलिए भी था कि पंजाब और आसाम वाले अपने आपको एक ही राष्ट्र परम्परा से बंधे हुए पाते थे। यदि आसाम में किसी व्यक्ति को काँटा चुभता था तो उसका दर्द पंजाब वालों को होता था, इसी प्रकार पंजाब वालों के कष्ट को आसाम वाले अनुभव करते थे। इस राष्ट्रीय भावना के कारण औरंगजेब को कभी भी राष्ट्रीयनायक का सम्मान प्राप्त नहीं हो पाया। निश्चय ही उसकी आत्मा आज तक भी इस सम्मान को प्राप्त करने के लिए तड़पती होगी।

यद्यपि वामपंथी और कांग्रेसी इतिहासकारों ने उसकी आत्मा की तड़पन को समझते हुए उसे राष्ट्रनायक या भारत रत्न के रूप में स्थापित करने का हरसम्भव प्रयास किया है, परन्तु देश की जनता है कि उसे आज तक भी राष्ट्र नायक मानने को तैयार नहीं है।

जिन लोगों ने औरंगजेब को इतिहासनायक या राष्ट्र नायक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया और माना, वे लोग अपना अलग देश लेने में सफल हो गए। आज भी जो लोग औरंगजेब को अपना इतिहास नायक या राष्ट्रनायक मान रहे हैं वह भी एक नया देश लेने की तैयारी में हैं। देश में जहाँ - जहाँ पर हिन्दू पर अत्याचार हो रहे हैं या जहाँ - जहाँ से हिन्दू को पलायन करने के लिए विवश किया जा रहा है, वहीं वहीं पर औरंगजेब वादी सोच के लोग अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल होते देखे गए हैं।

इस प्रकार औरंगजेब अपने जीवन भर तो विखण्डन, विभाजन और विघटन का प्रतीक रहा ही अपने मरने के पश्चात् भी वह विखण्डन, विभाजन और विघटन का ही प्रतीक बना हुआ है। इसी की सोच को आगे लेकर चलने वाले सर सैयद अहमद खान जैसे लोगों ने देश में सबसे पहले द्विराष्ट्रवाद की बात रखी थी।

हिन्दू राष्ट्रनायकों ने किया था भारी विरोध


औरंगजेब की नीतियों का विरोध करने के लिए उस समय अनेकों शिवाजी, गुरु तेग बहादुर, गुरु गोविंद सिंह और बंदा वीर बैरागी जैसे हिन्दू नेता मैदान में छाती तानकर खड़े हो गए थे। जिसका देश के जनमानस ने स्वागत और सत्कार किया था। इतिहास की परम्परा को चाहे इतिहास लेखकों ने कितना ही क्यों न प्रदूषित कर दिया हो पर शिवाजी और बंदा वीर बैरागी के प्रति हिन्दू जनमानस में जिस प्रकार का श्रद्धा भाव आज भी मिलता है, उससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय के हिन्दू समाज ने अपने इन दोनों इतिहासनायकों का किस प्रकार सम्मान किया होगा और इन्होंने उस समय हिन्दू जनता पर हो रहे इस्लामिक अत्याचार का सामना करके कितनी बड़ी वीरता का परिचय दिया होगा?

अपनी इसी प्रकार की वीरता का प्रदर्शन करते हुए गुरु गोविंद सिंह ने अपने चार बेटों का बलिदान दिया। गुरु तेगबहादुरजी ने अपना बलिदान दिया तो शिवाजी ने तो मुगल बादशाहत को समाप्त करने का बीड़ा ही उठा लिया था।

यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि औरंगजेब की मृत्यु के ठीक 30 वर्ष पश्चात् शिवाजी के उत्तराधिकारियों ने मुगल वंश को लगभग समाप्त कर आज के भारत वर्ष के बहुत बड़े भाग पर अपना शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। 1737 की इस घटना को वास्तव में देश की पहली आजादी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

वास्तव में पंजाब के गुरुओं और वीर शिवाजी के उत्तराधिकारियों के इस प्रयास से हिन्दुओं को मिली यह सफलता मुगलों के दंगों से भरे इतिहास पर प्राप्त की गई एक विजय थी। जिसे सही अर्थ और सन्दर्भ देकर सही ढंग से हमारे इतिहास में स्थान नहीं दिया गया है।

दक्षिण भारत का औरंगजेब टीपू सुल्तान

वामपंथी इतिहासकारों ने टीपू सुल्तान जैसे धार्मिक असहिष्णु, मजहबपरस्त शासक को भी धर्मनिरपेक्ष दिखाने का प्रयास किया है। जबकि उसके बारे में सच यह है कि वह हिन्दुओं का उत्पीड़न करने के मामले में दक्षिण भारत का औरंगजेब था। उसने अपने शासनकाल में लाखों हिन्दुओं का धार्मिक उत्पीड़न किया। उनके प्रति धार्मिक असहिष्णुता और अपनी धर्मांधता का परिचय देते हुए टीपू सुल्तान ने लाखों हिंदुओं को धर्मान्तरित कर मुसलमान बनाया। टीपू सुल्तान ने औरंगजेब की भाँति ही हिन्दुओं के अनेकों मन्दिरों का विध्वंस किया। जिससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह हिन्दुओं के प्रति सहिष्णु और उदार शासक था।

2015 में आरएसएस के मुखपत्र पाँचजन्य में इसी आशय का एक लेख छपा था जिसमें टीपू सुल्तान की जयंती के विरोध में उसको दक्षिण का औरंगजेब बताया गया है, जिसने जबरन लाखों लोगों का धर्मांतरण कराया।

टीपू सुल्तान की धर्मांधता और धार्मिक असहिष्णुता की नीति के बारे में विदेशी विद्वानों ने भी लिखा है। उनके उल्लेख और तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि वह भी अन्य मुस्लिम शासकों की भाँति हिन्दुओं के प्रति कठोरता की नीति का पालन करने का समर्थक था। 19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार के अधिकारी और लेखक विलियम लोगान ने अपनी किताब 'मालाबार मैनुअल' में लिखा है कि टीपू सुल्तान ने अपने 30,000 सैनिकों के दल के साथ कालीकट में विध्वंस मचाया था। टीपू सुल्तान ने पुरुषों और महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर फाँसी दी और उनके बच्चों को उन्हीं के गले में बाँध कर लटकाया गया। इस किताब में विलियम ने टीपू सुल्तान पर मंदिर, चर्च तोड़ने और जबरन शादी जैसे कई आरोप भी लगाए हैं।

1964 में प्रकाशित किताब लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान में कहा गया है कि सुल्तान ने मालाबार क्षेत्र में एक लाख से अधिक हिन्दुओं और 70,000 से अधिक ईसाइयों को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया।

( मज़हब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना पुस्तक से ..)

( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )
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