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जब‌ हृदय चहक जाला

जब‌ हृदय चहक जाला

जब हृदय चहक जाला ,
तब मनवा बहक जाला ।
जरि जाला जियरा तब ,
आत्मा भी डहक जाला ।।
चल पड़ेला कवि जब इ ,
अपना कविता के राह में ।
कभी जड़ेला धूप से देह ,
राहतो ना मिले इ छाॅंह में ।।
छाॅंह में खग बिछटा मिले ,
ऊपर से कर्कश राग काॅंव ।
कवि जीवन बीते कष्ट में ,
रागिया खेले राह में दाॅंव ।।
कवि धर्म त रुकल ना ह ,
कवि कर्म त चलते रहेला ।
चाहे कवि चले इ अकेला ,
चाहे पीछे जन जन बहेला ।।
बिक जाए दुनिया धरा के ,
कवि कहियो ना बिकेला ।
बिक जाए कवि जेह दिन ,
बसुंधरा भी हिलत दिखेला ।।
हिम्मत कहाॅं कवि किन ली ,
जीवन आपन इ दुर्दिन ली ।
चाहे गिरी सरकार मुॅंहकुरिए ,
या कवि अपने के भुन ली ।।
कवि चले जब निज राह पे ,
कवि नाहीं इंतजार करेला ।
निष्ठा श्रद्धा आ विश्वास लेके ,
अधर्म पाखंड विरोध करेला ।।
कुरीति के जड़ से उखाड़ दे ,
अश्लीलता क्रूरता ताड़ दे ।
घोटाला नाम से आए मिर्गी ,
अईसन हथियार में धाड़ दे ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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