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मायके का मोह

मायके का मोह

मायके का मोह
होता है हर स्त्री को
रोते बिलखते हुए वह विदा होती है
मायके की चौखट से
और
छोड़ आती है
बचपन की छोटी छोटी पायलें
आलमारी में सजी उसकी गुड़िया
छोटा सा गुल्लक
किताबें, चुड़ियां और न जाने क्या क्या
जिसके साथ उसका बरसों से लगाव रहा
इसलिए भरे पूरे ससुराल में खुश रहते हुए भी
वह मायके का मोह छोड़ नहीं पाती है
मायके का मोह जोड़ता है उसके वर्तमान को अतीत से
कितना सुखद होता है वो पल
जब मायके जाने पर वह मां से मिलती है
और ढ़ेर सारी बातें करके फिर से
चुलबुली सी लड़की बन जाती है
मायके के बाजार, गली मुहल्लों में
घूम घूमकर शॉपिंग करती है
और पानी पूरी खाते हुए
चटखारे लेती है
वो स्वाद और और वो अपनापन
कहीं और कहां मिल पाता है
मायके का मोह इसलिए हर स्त्री के मन में होता है।
-सविता शुक्ला
मुंबई
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