महिला सशक्तिकरण और महिलाओं के कर्तव्य
वर्तमान समय में महिलाओं के सशक्तिकरण की बातें की जाती हैं । जिसके लिए महिलाओं के अनेक संगठन देश में काम कर रहे हैं । जो महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं । क्या ही अच्छा हो कि ये सभी संगठन महिलाओं के अधिकारों की अपेक्षा उन्हें उनके कर्तव्यों का स्मरण दिलाएं ।यह सच है कि महिलाओं के अधिकार वैसे ही होने चाहिए जैसे पुरुषों के होते हैं । प्राचीन भारत में इसी प्रकार स्थिति थी जब महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे और वह शिक्षा आदि के क्षेत्र में पुरूष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती थीं ।उस काल में यदि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे तो वह पुरुषों के समान ही अपने कर्तव्यों पर भी ध्यान देती थीं , जिससे समाज और राष्ट्र की व्यवस्था सुचारू रूप से चलती थी।आज की परिस्थितियों में नारी सशक्तिकरण की बात हो तो अच्छा लगता है , परंतु यहाँ हम नारी सशक्तिकरण की नहीं , नारी के समाज के प्रति कर्तव्यों की बात कर रहे हैं। वास्तव में नारी अपने कर्तव्यों के प्रति जितनी सावधान होगी , उतना ही उसका सशक्तिकरण होगा।
सुशिक्षित महिला का निर्माण करना
प्रत्येक महिला का यह कर्तव्य है कि वह माँ या बड़ी बहन के रूप में अपनी बेटी या छोटी बहन की शिक्षा की समुचित व्यवस्था कराए । क्योंकि उसे सुशिक्षित नारी का निर्माण कर समाज को सौंपना होता है । एक सुशिक्षित व सुसंस्कारित महिला का निर्माण एक महिला ही कर सकती है । अपने इस कर्तव्य के प्रति नारी को जागरूक होना चाहिए । अपने मायके और ससुराल पक्ष के बीच महिलाओं को उचित समन्वय बनाने के लिए एक दूसरे की बातों को इधर-उधर नहीं कहना चाहिए । दोनों में समन्वय बनाए रखने के लिए छोटी - मोटी बातों को छुपा कर रखना चाहिए। प्रत्येक समझदार महिला ऐसा करती भी देखी जाती है । वह दोनों पक्षों में एक ऐसा समन्वय स्थापित किए रखती है कि कोई सा भी कोई से कभी लड़ता नहीं है। परंतु कहा जाता है कि 'सावधानी हटी और दुर्घटना घटी' - जहां महिला अपने कर्तव्य के प्रति असावधान देखी जाती है वहां पर उसके मायके पक्ष और ससुराल पक्ष में अनावश्यक वाद-विवाद भी होते देखे जाते हैं। जो महिला दोनों पक्षों में एक अच्छा समन्वय बनाए रखती है वह निश्चय ही दुसंस्कारित और सुशिक्षित होती है । ऐसी ही महिलाओं का निर्माण करना महिला का समाज के प्रति पहला कर्तव्य है । एक अच्छी मां पिता और पुत्र में अर्थात अपने पति और पुत्र में भी कभी तनाव उत्पन्न नहीं होने देती । वह बड़ी सावधानी से उन दोनों को समझाकर रखती है और परिवार की नैया को सावधानी के साथ खेती रहती है।जिस परिवार में पुत्र नहीं है , केवल पुत्रियां हैं , वहाँ पर माता - पिता की सेवा आदि का भार बेटियों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए । उन्हें यह दिखाना चाहिए कि वह बेटे के स्थान पर उन सारे कर्तव्यों को करने के लिए सहर्ष तैयार हैं जो एक बेटे को करने चाहिए थे । इसी प्रकार अपने ससुराल पक्ष में भी अपने ससुराल वालों को इस बात के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार रखना चाहिए कि वह अपने माता - पिता की सेवा चाहे उन्हें मायके में रखकर करे चाहे अपने साथ रखकर करे , उसमें वे किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। आज जब एक पुत्र और एक पुत्री पैदा करने का प्रचलन युवाओं में तेजी से बढ़ रहा है , तब ऐसा सदप्रयास सतकर्त्तव्य के रूप में अपनाना या करके दिखाना महिलाओं के लिए बहुत आवश्यक हो गया है। हमारे देश में यह परंपरा रही है कि जिन माता-पिता के पुत्र नहीं होता , उनका अंतिम संस्कार भी पुत्री से ना कराकर उनके किसी अन्य पुरूष परिजन से कराया जाता है । यह प्रसन्नता का विषय है कि अब ऐसी परम्पराओं को तोड़ने के लिए बेटियां सामने आ रही हैं। अक्सर ऐसे उदाहरण समाचार पत्रों में आते रहते हैं जहां बेटी ने इस परम्परा को तोड़कर स्वयं अपने पिता या माता को मुखाग्नि दी है । वैदिक दृष्टिकोण भी यही है कि जब पुत्री को पुत्र के समान ही अधिकार प्राप्त होते हैं तो उसके कर्तव्य भी वैसे ही हैं जैसे एक पुत्र के होते हैं । इसलिए नारी को अपने कर्तव्य को पहचान कर उसे निभाने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए।
'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' अभियान और नारी
भारत में कानून के अनुसार माता पिता की संपत्ति में पुत्र को ही अधिकार प्राप्त है। यद्यपि अब कई प्रांतों में यह स्थिति का गई है कि पुत्री को भी अधिकार दिया जा रहा है । इसी प्रकार माता-पिता के भरण - पोषण की अपेक्षा भी पुत्र से ही की जाती है , परंतु अब समय परिवर्तित हो रहा है । नारी को परिवर्तित परिवेश और परिस्थितियों में अपने आपको इस प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए कि वह स्वयं भी अपने माता-पिता के भरण-पोषण के लिए तैयार है। कुल मिलाकर पुत्रहीन माता - पिता को पूर्णत: सम्मानित जीवन जीने के लिए उचित परिवेश देना महिलाओं का या बेटियों का कर्तव्य है। जहाँ पुत्रियां ऐसा करके दिखा रही हैं वहाँ पर माता - पिता को कभी इस बात के लिए पश्चाताप नहीं होता कि उनके कोई पुत्र नहीं था । इसके विपरीत इस बात पर वह पर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं कि भगवान ने चाहे उन्हें एक बेटी ही दी पर वह ऐसी दे दी है जो बेटे के भी सभी कर्तव्य पूरे कर रही है।यह एक सर्वमान्य सत्य है कि पुत्री का लगाव अपनी माता में अधिक होता है। इसी प्रकार माँ भी अपनी पुत्री में कुछ अधिक लगाव रखती है। दोनों में कई बार ऐसा मित्रवत व्यवहार हो जाता है जैसे दो सहेलियों के बीच होता है । परन्तु इसके उपरान्त भी हमें यह लिखते हुए दुख होता है कि अभी भी देश में ऐसी अनेकों महिलाएं हैं जो अपनी ही बेटी को शिक्षा के अधिकार से वंचित करती हैं । वे नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी सुशिक्षित हो और अच्छी पढ़ाई लिखाई प्राप्त कर समाज में सम्मान पूर्ण स्थान प्राप्त करे । उनकी सोच होती है कि 'बेटी पराई घर का कूड़ा है' - इसलिए उसे क्यों पढ़ाया लिखाया जाए ? महिला होकर महिला के प्रति ऐसी सोच रखना सचमुच चिंताजनक है । वह अपने इस कर्तव्य का निर्वाह करने में चूक कर जाती हैं कि उन्हें समाज को एक सुशिक्षित और सुसंस्कारित महिला देनी है । इसके लिए उचित यही होगा कि महिलाओं को अपनी बेटियों की शिक्षा की व्यवस्था कराने में उतनी ही रुचि लेनी चाहिए जितनी बेटे की शिक्षा की व्यवस्था करने में भी रुचि दिखाती हैं। प्रत्येक महिला को यह भी समझना चाहिए कि वह स्वयं एक महिला है , इसलिए महिला होने के नाते उसे अपनी ही कोख से जन्म लेने वाली बेटी की हत्या नहीं करनी चाहिए और ना ही भ्रूण हत्या के बारे में सोचना चाहिए । माता का यह कर्तव्य है कि वह सृष्टि के संचालन के लिए आने वाली प्रत्येक बेटी का वैसे ही स्वागत व सत्कार करे जैसे बेटे का किया जाता है। हमारे देश की वर्तमान सरकार ' बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' - का अभियान चलाए हुए है । वर्तमान परिस्थितियों में सरकार का यह निर्णय बहुत ही सराहनीय है । हमारा मानना है कि सरकार का यह अभियान तभी सफल हो सकता है जब इसमें नारी शक्ति का पूर्ण सहयोग व समर्थन प्राप्त होगा । इसके लिए नारी शक्ति का कर्तव्य है कि वह 'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' - के सरकारी अभियान के मर्म को समझे और अपना अपेक्षित सहयोग सरकार को व समाज को प्रदान करे। महिलाओं को यह समझना चाहिए कि वर्तमान युग विज्ञान का युग है। इसलिए इस युग में किसी भी प्रकार के अंधविश्वास के लिए स्थान नहीं है । उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि बेटी ना तो हम पर बोझ है और ना ही वह पराए घर का कूड़ा है । इसके विपरीत बेटी दो घरों की शान है - उन्हें यह समझना चाहिए। दो घरों की शान बेटी का निर्माण करना महिलाओं का कर्तव्य है।
महिला का महिला के द्वारा शोषण बंद हो
विज्ञान के इस युग में देश विदेश की जानकारी रखना पुरुष वर्ग का ही कार्य नहीं है अपितु यह महिलाओं का भी कर्तव्य है कि वह भी विज्ञान के साथ जुड़ें और वैज्ञानिक मान्यताओं को अपनाकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देश और विदेश की जानकारी रखें ।माता को बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा जाता है । जब माता स्वयं ज्ञान - विज्ञान का कोष बन जाएगी तो वह अपने बच्चों को वैसा ही ज्ञान देने में समर्थ होगी। जिससे देश व समाज की चारित्रिक , मानसिक और बौद्धिक उन्नति होगी।वैसे भी आजकल पुरुष वर्ग के लिए भागमभाग की अति व्यस्त जीवन शैली हो गई है । जिसमें वह देश - विदेश की बदलती हुई परिस्थितियों का उतना ध्यान नहीं रख पाते जितना अपेक्षित है । उधर बच्चे भी अधिक समय माँ के साथ ही गुजारते हैं और उन्हें भी बदलते हुए समय की नई - नई बातों की जानकारी रखने की जिज्ञासा होती है । जिन्हें वह बड़ी सहजता से अपनी माता से ही पूर्ण कर सकते हैं । क्योंकि वह उनकी प्रथम पाठशाला है । बच्चों की अपेक्षा होती है कि माँ के पास संसार भर का सारा ज्ञान उपलब्ध है । बच्चे यह सोचते हैं कि उनकी माँ उनकी प्रत्येक जिज्ञासा का संतोषजनक और वैज्ञानिक ढंग से समाधान प्रस्तुत कर सकती है । एक अच्छी माँ को अपने बच्चों की इस अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए प्रयास भी करना चाहिए। अतः समाज , देश और वैश्विक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों के प्रति महिलाओं को जागरूक रहना ही चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य ( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)
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