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औरंगज़ेब को लेकर चल रही निरर्थक बहस

औरंगज़ेब को लेकर चल रही निरर्थक बहस

डॉ राकेश कुमार आर्य
राजनीति में कुछ वास्तविकताओं को स्वीकार करके भी स्वीकार नहीं किया जाता। जैसे भारत का विभाजन हुआ, यह तो सभी स्वीकार करते हैं परंतु इसके लिए जिम्मेदार कौन था ? - यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित है । यदि राजनीति का वश चले तो भारत के विभाजन की कहानी को यह कहकर भी समाप्त किया सकता है कि पाकिस्तान कभी भारत का अंग रहा ही नहीं था।
इतिहास क्या है ? - एक निरीह प्राणी। एक बेजुबान प्राणी।जिसे आप जैसी भाषा देंगे - वह वैसा ही बोलने लगेगा। इतिहास से वह बुलवाया गया जो उसे नहीं बोलना चाहिए था । इसकी आड़ में हमारे कितने महान वीरों का खून कर दिया गया इस ओर किसी ने भी नहीं देखा। इसके क्या दुष्परिणाम हुए ? - यह भी किसी ने नहीं देखा। बस कुछ मूर्खों ने आधुनिक भारत के प्रगतिशील ' विचारक' बनकर निर्णय लिया और कह दिया कि देश को यदि आगे बढ़ाना है तो रक्तरंजित लोगों को भी उदार दिखाना पड़ेगा। उनकी इस प्रकार की मानसिकता से जीत किसकी हुई ? निश्चित रूप से उन हिंसक और आतंकी नीतियों में विश्वास रखने वाले लोगों की जो आज भी अपने मजहबी एजेंडा को आगे रखकर देश में तोड़फोड़ करने की नीतियों में विश्वास रखते हैं । कथित प्रगतिशील देशनाशक विचारकों की इन मूर्खतापूर्ण नीतियों के कारण अनेक प्रकार की संभावनाओं से भरे हुए भारत जैसे देश ने उन आतंकी शक्तियों के सामने घुटने टेक दिए जो आज भी औरंगजेबी एजेंडा पर काम करने में दिन-रात लगी रहती हैं। जब देश 1947 में आजाद हुआ तो उस समय एक स्वर्णिम अवसर था जब हम अपने इतिहास की गंगा को प्रदूषण मुक्त कर सकते थे। परंतु उस समय देश के पहले प्रधानमंत्री ने देश के इतिहास लेखन की जिम्मेदारी एक मुस्लिम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद को सौंपी। जिन्होंने इतिहास लेखन के संदर्भ में यह विमर्श गढ़ दिया कि देश को आगे बढ़ाना है तो भारतवर्ष के आर्य राजाओं अथवा हिंदू राजाओं के गौरवशाली इतिहास और उनकी परंपराओं को भुलाकर मुगल गान करना होगा।
इसके बाद कांग्रेस ने चार और मुस्लिम शिक्षा मंत्री देश को दिए। जिन्होंने अपने आदर्श मौलाना अबुल कलाम आजाद के अधूरे कार्यों को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। राजनीतिज्ञों की इस उहापोह पूर्ण नीति या मानसिकता के चलते हम इतिहास के साथ निरंतर अन्याय करते चले गए। वास्तव में यह अन्याय इतिहास के साथ नहीं था , अपितु अपने देश की बलिदानी इतिहास परंपरा के साथ किया गया अन्याय था। जिसके चलते अनेक इतिहास पुरुषों की स्मृतियों का कत्ल कर दिया गया। कितने दुख की बात है कि हमने अपने अनेक इतिहास पुरुषों की स्मृतियों का कत्ल अपने हाथों से कर लिया। क्या वर्तमान विश्व के किसी अन्य देश ने अपने इतिहास नायकों के साथ इस प्रकार का व्यवहार किया है ? यदि नहीं तो भारत ने ही यह आत्मघाती निर्णय क्यों लिया ? क्या इसके पास अपनी कोई शानदार विरासत नहीं थी ? या जीवन जीने की अपनी स्वतंत्र जीवन शैली नहीं थी ? ऐसा क्या नहीं था, जिसके कारण तेज से भरे हुए भारत जैसे देश ने अपने विनाश का पथ चुन लिया ?
यदि इस प्रश्न का उत्तर खोजेंगे तो पता चलेगा कि भारत के पास सब कुछ था, बस तेजस्वी ओजस्वी राष्ट्रवादी नेतृत्व नहीं था। दोगली मानसिकता से भरपूर दोगले वातावरण और दोगली सोच के परिवेश में विकसित हुआ भारत का वह नेतृत्व भारत के इतिहास को ही दोगला कर गया। सचमुच नेताओं की दोगली सोच और उनका दोगला चिंतन राष्ट्र के लिए कितना घातक हो सकता है ? इसे भारत के इतिहास के लेखन के संदर्भ में समझा जा सकता है। नेताओं की इस सोच का परिणाम है कि आज औरंगज़ेब को लेकर पूरे देश में एक नई चर्चा ने जन्म ले लिया है। जो भी व्यक्ति इतिहास के इस क्रूर और आतंकवादी सोच के कथित बादशाह के लिए कुछ बोलता है वही एक वर्ग के लोगों को बुरा लगने लगता है। इससे भी अधिक दुख की बात यह है कि हिंदू समाज में भी अनेक ऐसे दोगले लोग हैं जो तुरंत औरंगजेब के पक्ष में जाकर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि इतिहास के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ उचित नहीं है। हिंदू समाज के भीतर रह रहे इन दोगले लोगों को इतिहास का वास्तविक स्वरूप ही ऐसा लगने लगता है जैसे इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की जा रही है।
विकिपीडिया के अनुसार समकालीन इतिहास में उल्लेख किया गया है कि खंडेला, जोधपुर, उदयपुर और चित्तौड़ में मंदिरों सहित सैकड़ों हिंदू मंदिरों को औरंगज़ेब या उनके सरदारों द्वारा उनके आदेश पर ध्वस्त कर दिया गया था और सितंबर 1669 में, औरंगजेब ने वाराणसी में प्रमुख हिंदू मंदिरों में से एक, काशी विश्वनाथ मंदिर को नष्ट करने का आदेश दिया।
अब्राहम एराली के अनुसार, "1670 में औरंगज़ेब ने, उज्जैन के आसपास के सभी मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था" और बाद में "300 मंदिरों को चित्तौड़, उदयपुर और जयपुर के आसपास नष्ट कर दिया गया" अन्य हिंदू मंदिरों में से 1705 के अभियानों में कहीं और नष्ट कर दिया गया; और "औरंगज़ेब की धार्मिक नीति ने उनके और नौवें सिख गुरु, तेग बहादुर के बीच घर्षण पैदा कर दिया, जिसे जब्त कर लिया गया और दिल्ली ले जाया गया, उन्हें औरंगज़ेब ने इस्लाम अपनाने के लिए बुलाया और मना करने पर, उन्हें यातना दी गई और नवंबर 1675 में उनका सिर कलम कर दिया गया।"
अब इसके दूसरी ओर खड़े अपने शिवाजी जैसे महाप्रतापी शासकों के बारे में विचार करते हैं। जिन्होंने इन अत्याचारियों के बीच रहकर भारत को हिंदू राष्ट्र अर्थात हिंदवी स्वराज्य बनाने का संकल्प लिया था। जिन्होंने विदेशी लोगों के अत्याचारों को झेल रही भारत की जनता का उद्धारक बनकर भारत में जन्म लिया और अपने उत्तराधिकारियों को भी इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह तब तक संघर्ष करते रहेंगे जब तक कि सत्ता शीर्ष पर बैठे इन विदेशी आतंकियों को सत्ता से दूर न कर दिया जाए। औरंगजेब को लेकर चल रही इस निरर्थक बहस को बंद कर हमें अपने राष्ट्रनायकों के चिंतन और दूरगामी सोच को अपना आदर्श बनाकर राष्ट्र निर्माण के कार्य में जुटना होगा। इसलिए सरकार को उन राष्ट्र नायकों की विरासत के साथ अडिग होकर खड़े रहना होगा जिनके कारण हम स्वतंत्र हुए हैं और जिनकी विचारधारा इस राष्ट्र की मजबूती का आधार रही है और आधार रहेगी।





( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है )
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