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पाप सदा बढ़ते,पुण्यों के प्रतिवाद से

पाप सदा बढ़ते,पुण्यों के प्रतिवाद से

धर्म आस्था दूरी बिंदु,
सदैव प्रकृति प्रतिकूल ।
भावना धारणा संकुचित,
लक्ष्य पथ अधर झूल ।
रग रग नैराश्यता व्याप्त,
माधुर्य विलुप्त संवाद से ।
पाप सदा बढ़ते, पुण्यों के प्रतिवाद से ।।

सोच विचार विभेद पूर्ण,
निज संस्कृति संस्कार विरुद्ध ।
प्रोत्साहन कृत्रिम प्रदर्शन,
परंपरा मर्यादा निरुद्ध ।
स्वार्थ सिद्धि तक संबंध,
अपनत्व ग्रसित अवसाद से ।
पाप सदा बढ़ते, पुण्यों के प्रतिवाद से ।।

व्यवहार अंतर लोभ लालच,
झूठ पाखंड असत्य पक्षधर ।
आत्मसात अंध प्रतिस्पर्धा,
वासना चाह पिपासु अधर ।
दिशा दशा स्वयंभू ओर,
समय मानमर्दन व्यर्थ विवाद से ।
पाप सदा बढ़ते, पुण्यों के प्रतिवाद से ।।

मानव जीवन अद्भुत अनुपम,
ईश्वर प्रदत्त अनमोल उपहार ।
प्रति पल कारक पर खुशियां,
हर कदम नैतिकता विहार ।
मानवता उत्थान परम ध्येय,
चरित्र आचरण परे प्रमाद से ।
पाप सदा बढ़ते, पुण्यों के प्रतिवाद से ।।

कुमार महेंद्र

(स्वरचित मौलिक रचना)

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