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जरा सोचो, आज हम कहां खड़े हैं

जरा सोचो, आज हम कहां खड़े हैं

सर्वत्र भौतिक चकाचौंध,
कृत्रिम प्रगति भाग दौड़ ।
मृग मरीचिकी चाह राह ,
अंध प्रतिस्पर्धा व्यर्थ होड़ ।
संबंध अंतर स्वार्थ अथाह,
परस्पर व्यवहार अकड़े हैं ।
जरा सोचो, आज हम कहां खड़े हैं ।।


अनियमित आहार विहार,
नैसर्गिकता परे जीवन शैली ।
सत्य पथ कष्ट कंटक पूर्ण,
संवाद संप्रेषण उग्र आवेश वैली ।
स्नेह प्रेम भाईचारा ज्योत मंद,
अंतःकरण द्वेष घृणा जकड़े हैं ।
जरा सोचो,आज हम कहां खड़े हैं ।।


निज संस्कृति संस्कार विलोप,
परंपरा मर्यादा उपेक्षित छोर ।
चिंतन मनन अनैतिक बिंदु,
दृष्टि अंतर वासना भोर ।
गिद्ध दृष्टि वनिता जात गात,
वैचारिकी वासना भाव उमड़े हैं ।
जरा सोचो,आज हम कहां खड़े हैं ।।


प्रकृति दोहन चरम बिंदु,
पर्यावरण प्रति संचेतना अभाव ।
समाज राष्ट्र हित पश्च कदम,
आदर संकट वरिष्ठजन छांव ।
दया करुणा सहयोग ओझल,
सर्वत्र मानवता पैर उखड़े हैं ।
जरा सोचो,आज हम कहां खड़े हैं ।।


कुमार महेंद्र


(स्वरचित मौलिक रचना)
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