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जिस जिगर के टुकड़े थे तुम

जिस जिगर के टुकड़े थे तुम ,

उसी जिगर पे तुम उखड़ गए ।
तुमने तो बघाड़ ली शेखी अपनी ,
किंतु उनके बागवाॅं उजड़ गए ।।
जब तुम होते ऑंखों से ओझल ,
ढूॅंढते तात लाल मेरे किधर गए ।
जिसने बताया उनको जिधर भी ,
प्यारे तात दौड़ते हुए उधर गए ।।
बर्बाद हुए पुत्र मोह में वे आकर ,
पछता रहे वे सब कुछ गॅंवाकर ।
किंतु चोट न आए लाल को मेरे ,
खुश होते खुश लाल को पाकर।।
स्वयं तबाह हुए लाल के कारण ,
लाल की तबाही स्वीकार नहीं ।
स्वयं पाऊॅं मैं सद्गति या दुर्गति ,
मेरा लाल रहे कभी लाचार नहीं।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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