जो मैं उसको चाहूँ तो वो मुझको चाहे,जरूरी नहीं है।
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
जो मैं उसको चाहूँ तो वो मुझको चाहे,जरूरी नहीं है।
जाँफिशानी पे मेरी वो रफकत निबाहे,जरूरी नहीं है ।
उतना मिला है जो था मिलना उसके रहमो करम से ,
हासिल बह्र में हो हीरा जितना भी थाहे,जरूरी नहीं है।
आस्ताँ पे चस्पाँ रहती हैं निगाहें आठों पहर,यारब;
दरवाजा वो खोले भी गाहे ब गाहे, जरूरी नहीं है।
सर पे जितना भी बिठा लूँ, उस बेवफा दिलरुबा को ,
गुन गाऊँ ताजीस्त तो वो सचमुच सराहे,जरूरी नही है।
हर घर में है जिसका घर,जिसके घर में है सबका घर,
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जाँफिशानी पे मेरी वो रफकत निबाहे,जरूरी नहीं है ।
उतना मिला है जो था मिलना उसके रहमो करम से ,
हासिल बह्र में हो हीरा जितना भी थाहे,जरूरी नहीं है।
आस्ताँ पे चस्पाँ रहती हैं निगाहें आठों पहर,यारब;
दरवाजा वो खोले भी गाहे ब गाहे, जरूरी नहीं है।
सर पे जितना भी बिठा लूँ, उस बेवफा दिलरुबा को ,
गुन गाऊँ ताजीस्त तो वो सचमुच सराहे,जरूरी नही है।
हर घर में है जिसका घर,जिसके घर में है सबका घर,
उस सादिक दीवाने का घर कोई ढाहे,जरूरी नहीं है ।
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