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प्रेम रंग जो चढ़े है देह

प्रेम रंग जो चढ़े है देह

पंकज शर्मा
गोपियां उतार रहीं देह से रंग-अबीर,
गोकुल गली में है ख़त्म फाग की पीर।
पिचकारियाँ बंद हुईं, थम गए हैं साज,
होरी बस पर्व नहीं, है एक प्रेम रिवाज़।


हर देहरी अब भी भींगी खड़ी,
यमुना की लहरों में बैराग भरी।
रंगों से धुल गए आँगन-दीवार,
पर हिय में बसे मोहन के वार।


कैसे उतरे वो कान्हा को रंग,
जो चढ़ा है मन में उमंग संग?
जो राधा की आँखों में लहराए,
जो मीरा के गीतों में घुल जाए।


न अबीर, न टेसू - पानी की धार,
न गंगा, न यमुना का निर्मल सार।
जो चढ़ा है वह अमर प्रेम-रंग,
न मिटे कभी, न बुझे उमंग।


श्याम के अधरों की बंसी बजे,
गोपियों के हृदय में सावन सजे।
हर साँस में राधा, हर धड़कन में कान्ह,
प्रेम रंग से रंगी हर एक निशान।


गोपियां उतार रहीं रंग-अबीर,
पर हृदय है कान्हा प्रेम अधीर।
जो चढ़ गया देह में प्रेम का रंग,
वह न उतरे जन्मांतरों के संग!


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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