इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू ( डिस्कवरी ऑफ इंडिया की डिस्कवरी ) पुस्तक से ...
- वर्ण-व्यवस्था का आधार रूप रंग था? अध्याय 11
डॉ राकेश कुमार आर्य
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वर्ण-व्यवस्था को रूप रंग का आधार प्रदान किया। वर्ण-व्यवस्था की वैज्ञानिकता को वह समझ नहीं पाए। उनके जैसे लेखकों की इस प्रकार की मान्यताओं के चलते भारत वर्ष में वर्ण-व्यवस्था को अवैज्ञानिकता की और बुद्धि से परे की व्यवस्था सिद्ध करने की होड़ मच गई। इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम यह निकला है कि समाज में जहां वर्ण-व्यवस्था से लोगों को घृणा हुई, वहीं उनके मन में अपने प्राचीन समाज व्यवस्थापकों के प्रति भी उदासीनता का भाव उत्पन्न हुआ। घृणा और उदासीनता का यह भाव इतना अधिक पैर पसार चुका है कि लोगों ने वेदों और वेदों की भाषा संस्कृत से भी मुंह फेर लिया है। जिसके परिणामस्वरूप कई लोगों ने वेदों के अर्थ के अनर्थ करने आरंभ कर दिए तो कइयों ने मनुस्मृति की गलत व्याख्या करनी आरंभ कर दी। अब यदि मनु और मनुस्मृति से घृणा करने वाले लोगों को यह समझाया जाए कि मनुस्मृति में या वेदों में ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिससे आपकी सामाजिक स्थिति प्रभावित होती हो तो वे इस बात को मानने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं होते? वे अपने उन लोगों की गलत व्याख्या को ही 'ब्रह्मवाक्य' मानते हैं जो उन्हें वेद और मनुस्मृति के विषय में ऐसा गलत वर्णन प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्र निर्माण में ऐसी गलत व्याख्याएं बहुत अधिक रोड़े अटकाती हैं।
भारत की ऋषियों द्वारा प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था पर नेहरू जी पृष्ठ 138 पर लिखते हैं-
"यह एक अजीब लेकिन मार्के की बात है कि हिंदुस्तानी इतिहास की लंबी मुद्दत में बड़े लोगों ने पुरोहितों और वर्ण-व्यवस्था की सख्तियों के खिलाफ बार-बार आवाज उठाई है, और उनके खिलाफ ताकतवर तहरीकें हुई हैं, फिर भी रफ्ता-रफ्ता करीब-करीब इस तरह का पता भी नहीं चलता, मानो भाग्य को कोई ना टालने वाला चक्र हो, जात-पात का जोर बढ़ा और उसने फैलकर हिंदुस्तानी जिंदगी के हर पहलू को अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। जात के विरोधियों का बहुत लोगों ने साथ दिया है और अंत में इनकी खुद अलग जात बन गई है। जैन धर्म जो कायम शुदा धर्म से विद्रोह करके उठा था और बहुत तरह से उससे जुदा था, जात की तरफ सहिष्णुता दिखाता था, और खुद उससे मिलजुल गया था। यही कारण है कि यह आज भी जिंदा है और हिंदुस्तान में जारी है। यह हिंदू धर्म की करीब-करीब एक शाख बन गया है। बौद्ध धर्म वर्ण-व्यवस्था न स्वीकार करने के कारण अपने विचार और रुख में ज्यादा स्वतंत्र रहा। 1800 साल हुए ईसाई मत यहां आता है और बस जाता है और रफ्ता-रफ्ता अपनी अलग जात बना लेता है। मुसलमानी समाजी संगठन बावजूद इसके कि उसमें इस तरह के भेद का जोरदार विरोध हुआ है, इससे कुछ हद तक प्रभावित हुए बगैर न रह सका।"
भारतवर्ष के संदर्भ में नेहरू जी के इस प्रकार के अनर्गल आरोपों का क्रम यहीं नहीं रुका, यह और भी आगे बढ़ा। इस प्रकार के निराधार और अनर्गल आरोपों का परिणाम यह हुआ कि आज तक लोग वर्ण-व्यवस्था को समाज विरोधी सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। यदि नेहरू जी की सोच और मानसिकता से प्रेरित इन लोगों से यह पूछा जाए कि वर्ण-व्यवस्था का विकल्प क्या है तो वह कुछ भी उत्तर देने की स्थिति में नहीं होते। नेहरू जी पृष्ठ 139 पर लिखते हैं कि-
"जब हम हिंदुस्तान में जात-पात के खिलाफ (जिसकी शुरुआती बुनियाद रंग या वर्ण पर आधारित है) इस तरह लड़ रहे हैं. हम देखते हैं कि पश्चिम में नई और अपने को अलग रखने वाली और मगरूर जातें उठ खड़ी हुई हैं, जिनका उसूल अपने को अलग-थलग रखना है और इसे कभी भी राजनीति और अर्थशास्त्र की भाषा में और कभी लोकतंत्र के नाम पर भी पेश करती हैं।"
हमारा मानना है कि समाज में फैल रही रूढ़िवादिता के विरुद्ध आवाज उठानी ही चाहिए। परंतु इसकी भी अपनी सीमाएं हैं। किसी व्यवस्था की वैज्ञानिकता को बिना समझे चुनौती देना फिर एक नई सढ़ि को पैदा करना होता है और नेहरू जी यही कर गए।
अब बहुत से प्रमाणों और शोधों के आधार पर यह बात स्थापित हो चुकी है कि भारत के क्षत्रिय समाज में राजपूत शब्द 13वीं शताब्दी के भी बाद (महाराणा कुंभा के शासनकाल में, 1450 ई. के लगभग) में आया है। इससे पहले सारा समाज क्षत्रियों का एक ही उत्तरी के नीचे एकत्र रहता था। इस समाज के लोगों का कार्य राष्ट्रवासियों को प्रत्येक प्रकार के अत्याचार और अन्याय से मुक्ति दिलाना होता था। यही इनका धर्म था। वर्ण-व्यवस्था में लोगों के या वणों के इस धर्म को नेहरू जी शायद समझ नहीं पाए थे। तभी तो वे लिखते हैं कि-
"बहुत से राजपूत क्षत्रिय वंश उस वक्त से शुरू होते हैं जब शकों सिदियनों के हमले ईसा से पहले की दूसरी शताब्दी में होने लगे थे या जब बाद में सफेद हूणों के हमले हुए। इन सब ने मुल्क में प्रचलित धर्म को या संस्थाओं को कबूल कर लिया और बाद में उन्होंने महाकाव्य के वीर पुरुषों से रिश्ता जोड़ना शुरु कर दिया। (इसका अभिप्राय है कि राम और कृष्ण की परंपरा समाज में पहले से नहीं थी, इन काल्पनिक वीर पुरुषों के साथ रिश्ता जोड़ने का क्रम नेहरू जी के अनुसार बाद में आरंभबना था, न कि जन्म की वजह से। इसलिए विदेशियों के लिए हुआ।) क्षत्रिय वर्ग ज्यादातर अपने पद और प्रतिष्ठा के कारण इसमें शरीक हो जाना बड़ा आसान था।"
क्षत्रिय वर्ग की इस प्रकार की उत्पत्ति की नई 'गप्प' को जोड़कर नेहरू जी ने एक नई भ्रान्ति को जन्म दे दिया।
भारत की वर्ण-व्यवस्था के बारे में मैकडोनेल ने लिखा है कि वास्तव में कृष्णवर्ण के आदिवासियों का ही नाम दास-दस्यु आदि हैं। ग्रिफिथ (Griffith) ने ऋग्वेद (1/10/1) का अंग्रेजी में अनुवाद करते हुए उसकी टिप्पणी में लिखा है- "काले रंग के आदिवासी, जिन्होंने आर्यों का विरोध किया। " 'वैदिक माइथौलौजी ' के अनुसार इसी प्रकार की मिथ्या बातों को और भी हवा दी गयी। वहां लिखा गया-
"वज्रपाणि इंद्र को जो युद्ध में अंतरिक्षस्थ दानवों को छिन्न भिन्न करते हैं, योद्धा लोग अनवरत आमंत्रित करते हैं। युद्ध के प्रमुख देवता होने के नाते उन्हें शत्रुओं के साथ युद्ध करने वाले आर्यों के सहायक के रूप में अन्य सभी देवताओं की अपेक्षा कहीं अधिक बार आमंत्रित किया गया है। वे आर्य वर्ण के रखने वाले और काले वर्ण के उपदेष्टा हैं। उन्होंने पचास हजार कृष्ण वर्षों का अपहरण किया और उनके दुर्गों को नष्ट किया। उन्होंने दस्युओं को आर्यों के सम्मुख झुकाया तथा आर्यों को उन्होंने भूमि दी। सप्तसिन्धु में वे दस्युओं के शस्त्रों को आर्यों के सम्मुख पराभूत करते हैं।"
अंग्रेजों की इसी मूर्खतापूर्ण धारणा को आधार बनाकर रोमिला थापर ने अपनी पुस्तक भारत का इतिहास में लिख मारा कि "वर्ण-व्यवस्था का मूल रंगभेद था। जाति के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द वर्ण का अर्थ ही रंग होता है।" जबकि पाणिनि महाराज ने आर्य शब्द की व्युत्पत्ति पर कहा है कि ये 'ऋ गती' धातु से बना है, जिसका अर्थ ज्ञान, गमन और प्राप्ति है। योगवासिष्ठ (126/4) में कहा गया है कि जो कर्तव्य कमों का सदा आचरण करता है और अकर्तव्य कर्मों अर्थात पापों से सदा दूर रहता है, वह आर्य कहाता है। इसी प्रकार दस्यु के लिए निरुक्तकार की परिभाषा है कि दस्यु वह है- जिसमें रस या उत्तम गुणों का सार कम होता है, जो शुभ कर्मों से क्षीण है या शुभ कर्मों में बाधा डालता है। (निर्घट् 7/23) ऋग्वेद ने दस्यु के विषय में कहा है कि दस्यु वह है जो अकर्मण्य है, या जो सोच विचार कर कार्य नहीं करता। जो हिंसा, असत्य, क्रूरता आदि का व्यवहार करता है।
भारत की इस वैज्ञानिक नामकरण परंपरा का अध्ययन करने के उपरांत मद्रास यूनिवर्सिटी के श्री बी.आर. रामचंद्र दीक्षितार ने 29-30 नवंबर 1940 को मद्रास यूनिवर्सिटी में दो महत्वपूर्ण व्याख्यान दिये थे, जो एडियार लाइब्रेरी से 1947 में प्रकाशित हुए। उन्होंने कहा-
"सत्य तो ये है कि दस्यु आर्येत्तर नहीं थे। यह मत कि दस्यु और द्रविड़ लोग पंजाब और गंगा की घाटी में रहते थे और जब आर्यों ने आक्रमण किया तो वे आर्यों से पराजित होकर दक्षिण की ओर भाग गये और दक्षिण को ही अपना घर बना लिया-युक्ति युक्त नहीं है।"
प्रिंसीपल पी.टी. श्रीनिवास अयंगर ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक प्राविडियन स्टडीज में लिखा है कि आर्य और दस्युओं के भेद को जातीय न मानकर गुणकर्म स्वभाव पर आधारित मानना ही ठीक है। आर्य द्रविड़ की इस कपोल कल्पना को पहली बार काल्डवेल नाम के ईसाई पादरी ने जन्म दिया। परंतु जार्ज ग्रीयरसन जैसे विदेशी भाषा शास्त्री ने स्पष्ट किया कि यह द्रविड़ शब्द स्वयं संस्कृत शब्द द्रमिल (Dramila) अथवा दमिल (Damila) का बिगड़ा रूप है और केवल तामिल के लिए प्रयुक्त होता है।
सौभाग्य से जिस काल्डवेल नाम के पादरी ने द्रविड़ की कपोल कल्पना को जन्म दिया था उसी ने कालांतर में अपनी धारणा में परिवर्तन किया और लिखा कि द्रविड़ शब्द असल में तमिल है और केवल तमिल लोगों तक ही सीमित है।
इसी बात को (Ethnology of India) के लेखक सरजॉर्ज कैम्पबेल (Sir George Campbell) ने भी लिखा है- "द्रविड़ नाम भी कोई जाति नहीं है। निस्संदेह दक्षिण भारत के लोग शारीरिक गठन रीति रिवाज और प्रचार व्यवहार में केवल आर्य समाज है।"
विश्वविख्यात इतिहासविद ए.एल. बाशम (A.L. Basham) ने अपने लेख "Some Reflections on Aryans and Dravadians" में लिखा है-
"इतिहास लेखकों ने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा को द्रविड़ कहा है। परंतु मोहनजोदड़ो में देखी गयी धार्मिक बातें दक्षिण भारत की विशेष नहीं है ना ही दोनों की खोपड़ियां एक दूसरे से मिन्न हैं। इसलिए न कोई आर्य जाति है और न द्रविड़, और हम भी ऐसा ही मानते हैं कि केवल एक मनुष्य जाति है।"
इस प्रकार विदेशियों ने हमारे बारे में मिथ्या प्रचार किया तो उन्होंने ही उसका निराकरण भी कर दिया। पर कुछ 'प्रगतिशील इतिहास' लेखक हमारे विषय में गलत धारणाओं को हम पर लादने का षड़यंत्र करते ही रहते हैं।
हमने यहां जिन विद्वानों के विचार विद्वान पाठकों को परोसे हैं, उन पर चिंतन कर इतिहास के विकृतीकरण के स्थान पर शुद्धिकरण की ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। भारत ने कभी भी व्यक्ति व्यक्ति के मध्य जाति, रूप-रंग, कद-काठी आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया। अतः आर्य और द्रविड़ के रूप में भारत के बटे रहने की उपरोक्त अवधारणा भी निराधार ही है।
क्रमशः
( आलोक - डॉक्टर राकेश कुमार आर्य के द्वारा 82 पुस्तकें लिखी व प्रकाशित की जा चुकी हैं। उक्त पुस्तक के प्रथम *संस्करण - 2025 का प्रकाशन *अक्षय प्रकाशन दिल्ली - 110052 मो० न० 9818 452269 से हुआ है।
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डॉ राकेश कुमार आर्य ( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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