दरक रहे रिश्ते,बिखर रही जिंदगी
अंध भौतिक चकाचौंध वश,मनुज जीवन मृग मरीचिका सम ।
तज निज संस्कृति संस्कार,
विपरीत प्रयास प्रकृति प्रक्रम ।
स्वार्थ वशीभूत व्यवहार पटल,
दंभ उग्र आवेश गौण शर्मिंदगी।
दरक रहे रिश्ते,बिखर रही जिंदगी ।।
दृष्टि अंतर नेह विलोपित,
वासना मय आचार विचार ।
पर नारी प्रति लघु सोच,
संसर्ग हित दिग्भ्रमित विहार ।
नित्य वृद्धित दुष्कर्म घटनाएं,
सर्वत्र दानवी हाहाकार दरिंदगी ।
दरक रहे रिश्ते,बिखर रही जिंदगी ।।
दैनिक चर्या पाश्चात्य ओतप्रोत,
मोबाइल पट संवाद संप्रेषण ।
सीमित परस्पर मिलना जुलना,
समय मानमर्दन व्यर्थ अन्वेषण ।
संबंध मध्य आलोचना बुराई,
उपेक्षित परंपरा मर्यादा बंदगी ।
दरक रहे रिश्ते,बिखर रही जिंदगी ।।
सामाजिकता प्रायः विलुप्त,
अश्लील द्विअर्थी गीत संगीत ।
नाच गान कामुक उत्तेजक,
संकीर्ण अपनत्व प्रणय प्रीत ।
चेतना शून्य लोक राग रंग,
स्नेह प्रेम आदर भाव चंदगी ।
दरक रहे रिश्ते, बिखर रही जिंदगी।।
कुमार महेंद्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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