होली ससुराल की
बचपन ने बड़ों से सुना कभी,
ससुराल में बिताए उनके होली के क्षण।
तभी से मेरे कोमल मन में भी,
होली में ससुराल जाने का था मन ।
शादी के बाद पहली बार,
बड़े शौक से ससुराल चला।
मन में मधुर सपनों को संजोए,
साले संग ससुराल चला ।
ससुराल पहुंच सालियों की देख फौज,
काफूर हो गए सारे मन के मौज।
दो दिनों की मस्ती के बाद,
होली का वह शुभ दिन आया ।
उस दिन जो मुझ पर बीती भाई,
तुम भी सुन लो व्यथा हमारी ।
होली के दिन की क्या बात बताऊं,
सालियों की क्या करामात सुनाऊं ।
सुबह सवेरे से मिलकर ही,
उनलोगों ने ऐसी ऊधम मचाई।
शरीर के वस्त्रों को फाड़कर ,ष
क्षणभर में तार - तार बनाई ।
कीचड़, गोबर व रंगों की,
मिलकर तन पर लेप चढ़ाई।
घंटों यूं ही आँगन में ऊधम मचाई,
दोपहर तक नंगे नाच नचाई ।
नहा धोकर फिर जब हमने,
नये पायजामे - कुर्ते पहने।
हुई शाम फिर शामत आई
सबने रंगों से मुझे नहलाई ।
लाल, पीले,हरे रंगों से,
सारे तन की हुई रंगाई ।
किया मुझे इस कदर परेशान है,
कि मैं तो बस रह गया हैरान।
ससुराल की होली का क्या यही है मजा
किस जुर्म की मुझे मिली सजा ,
ऐसी होली खेलने से मैं बाज आऊं,
भूलकर भी होली में ससुराल न जाऊँ।
सुरेन्द्र कुमार रंजन
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