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यूँ न खींच मोहे कान्हा

यूँ न खींच मोहे कान्हा

यूँ न खींच मोहे कान्हा अपनी तरफ़ बेबस करके,
कहीं ऐसा न हो कि खुद से भी... बिछड़ जाऊँ !!
तेरी मुरली की तान जब मन के द्वार पे दस्तक दे,
चाहूँ न चाहूँ, तेरी ओर स्वयं खिंची चली आऊं!!

बिसार दियो गोकुल, बाल्य-प्रेम की चितवन,
अब नयनों में तेरे सपने, मन संसार की उलझन।
चूल्हे जलती आग सम, मानों मैं  जल-जल जाऊं,
कानन बंसी बाजत नहीं, सिसक-सिसक रह जाऊं।

कहीं फूट ना जाए मोरी ये माटी की मटुकिहा,
बिन माखन सास - ननद तो अनेकों नाम धराऊं!!
कभी तानों की वर्षा, कभी उलाहनों की बौछार,
ओ कान्हा! सुन लो मेरी मन की करुण पुकार।

तेरे प्रेम का दीप जलाते-जलाते मैं तो बुझने लागी,
अपने भीतर के स्वर को कान्हा! मैं ही सुनने लागी।
पर जब तेरी छवि देखूं, मन मयूर फिर नाच उठे,
तेरे नाम की रट में सारा जीवन ही रम जाए !!

यूँ न खींच मोहे कान्हा अपनी तरफ़ बेबस करके,
अब बस इतना कर दो, मैं तुझमें ही समा जाऊँ।
न द्वारिका की रानी बनूँ, न गोकुल की प्यारी रहूँ,
बस तेरी राधा बन, प्रेम-रंग में रंगी ही रहूँ !!

.       स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
                "कमल की कलम से"
      (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान) 
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