"दरारों से झाँकते हम"
चुपके चुपके हम ज़िंदगी को ताकते रह गए,बस हम वो हैं जो दरारों से झाँकते रह गए।
ख्वाबों की बस्ती में घरौंदा बनाने चले थे,
हकीकत की आँधी में तिनके से बिखर गए।
उम्मीदों के पंखों पर उड़ने का ख्वाब था,
हालातों के पिंजरे में कैद होकर रह गए।
अपनों की महफ़िल में जगह बनाने चले थे,
बेगाने बनकर तन्हाई में सिमटकर रह गए।
भीगी इन आंखों से मुस्कराने की कोशिश,
पर दर्द को छिपाने में नाकामयाब रह गए।
वक्त की रेत पर नाम लिखने की चाहत थी,
पर समय के तूफां में सब निशान मिट गए।
चाहत के दीप जलाकर रोशनी करने चले थे,
पर अँधेरों के साए में बस गुम होकर रह गए।
ज़िंदगी की किताब के पन्ने पलटने चले थे,
पर हर पन्ने पर दर्द की दास्ताँ लिखते गए।
चुपके चुपके हम ज़िंदगी को ताकते रह गए,
बस हम वो हैं जो दरारों से झाँकते रह गए।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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