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"क्या छिप गए हो कहीं ?"

क्या छिप गए हो कहीं ?

क्या छिप गए हो कहीं,
तारों की कतार में?

खोज रही हूँ तुम्हें मैं,
स्निग्ध चाँदनी की छाँव में,
मंद समीर के झोंकों में,
सागर की उठती लहरों में।


क्या छिप गए हो कहीं,
झरनों की फुहार में?


गूंजते मंत्रों के सुर में,
शंख की पावन ध्वनि में,
मंदिर की घंटियों में,
आरती के स्वर में,


क्या बस गए हो कहीं,
भक्तों की पुकार में?


वह जो क्षितिज पर चमके,
संध्या की सिंदूरी रेखा,
जो सृष्टि में घुल जाए,
अदृश्य, असीम, अलौकिक,


क्या मिलोगे वहीं,
अनंत विस्तार में?


कभी दीप की लौ में झलको,
कभी ओस की बूँद में छलको,
कभी हवाओं में गुनगुनाओ,
कभी गगन में इंद्रधनुष बन जाओ।


पर मैं फिर भी खोजती हूँ,
तुम्हारे अस्तित्व के प्रमाण में,


पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,
आकाश के भी पार में।
ब्रह्मांड के रंगों में,
सूरज के ज्वार में,


क्या छिप गए हो कहीं,
तारों की कतार में?


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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