बेटे और बेटियाँ
बेटा हुआ, चलो ख़ुशियाँ मनायें,वारिस मिला, आओ ख़ुशियाँ मनायें।
बात नहीं करता, कोई दायित्व की,
आरोप लगायें, फिर ख़ुशियाँ मनायें।
कब जीये बेटे यहाँ, खुद की ख़ातिर,
जीते वह माँ बाप बहन की ही ख़ातिर।
शादी हुई तो पत्नी की ज़िम्मेदारी बढ़ी,
फिर जीये परिवार, बच्चों की ख़ातिर।
आय जितनी भी हो उसकी कम लगे,
बहन की शादी की चिंता प्रथम लगे।
माता पिता स्वस्थ रहकर ख़ुश रहें,
सबकी ख़ुशी अपनी ख़ुशी से उत्तम लगे।
चलता है पैदल धूप में बोझा उठाकर,
कुछ पैसे बच सकेंगे, यह सोच कर।
भूखा भी रहता वह कभी तंगहाली में,
पेट भरा बताता फिर भी मुँह पोंछकर।
दोष फिर भी बेटों को हम दे रहे,
शुष्क आँखों में आँसू कहीं खो रहे।
पिसता देखा दो पाट में बेटा सदा,
सत्य को हम मिलकर धोखा दे रहे।
बेटियाँ अच्छी हैं, सब कह रहे,
शादी हुई, क्यों अलग रह रहे?
दोष तब भी बेटों पर लगाया गया,
जोरू का गुलाम, घर के कह रहे।
क्यों नहीं दोष देते, वह बेटियों को,
संस्कारों को बिसराती, बेटियों को।
उन्मुक्त जीवन, आज़ाद रहने की चाह,
परिवार को ठुकराती, निज बेटियों को।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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