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हटा लीजिए चेहरे से पर्दा अपने

हटा लीजिए चेहरे से पर्दा अपने

पंकज शर्मा
हमने देखी हैं निगाहों की जुबान गहरी,
छिपी हर बात कह जाती है सदा ठहरी।
शब्दों की जरुरत नहीं अब इशारों में,
खुली किताब बनो इन बहारों में।


जो अनकही बातें होंठों तक आ गईं,
क्या वो कभी दिल में छिप पाई हैं?
जो धड़कनों ने गाया, हवाओं ने सुना,
क्या वो लहरों से छुपाई जा सकी हैं?


तुम्हारी चुप्पी में भी तो एक शोर है,
तुम्हारे लब्ज़ों में भी तो कुछ और है।
अब पर्दों का ये खेल खत्म कर दो,
सच को सच की तरह प्रकट कर दो।


जो दिल में है, उसे लफ्जों में ढाल दो,
जो अधूरा है 'कमल', उसे पूरा हाल दो।
सवालों में अब कोई जंग नहीं होगी,
सिर्फ मोहब्बत की ही तरंग होगी।


तो हटा लीजिए अब तो चेहरे से पर्दा अपने,
नहीं लेने हमें सवालों के जवाब अब अपने।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)


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