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कौन सा नशा कहो मैं छोड़ दूॅं

कौन सा  नशा कहो मैं छोड़ दूॅं

जीने की नशा कहो मैं छोड़ दूॅं ,
या जीवन से मुख ही मोड़ दूॅं ,
या जीने की हैं जितनी कलाऍं ,
समस्त कलाओं को ही तोड़ दूॅं ।
या जिंदगी को ही लगा दूॅं आग ,
या गर्म लोहे से जीवन लूॅं दाग ,
या तू मुझसे आगे न बढ़ जाए ,
मन बिठाऊॅं विपरीत तेरे नाग ।
निज हित हेतु स्वार्थ ही जोड़ लूॅं ,
तेरी पतंग काटनेवाला डोर लूॅं ,
जीवन मार्ग टेढ़ी मेढ़ी है यारों ,
जीवन से हार शीश मैं फोड़ लूॅं ।
या पावन रिश्तों में लगा दूॅं आग ,
या दारू शराब का लगा दूॅं बाग ,
निज काम बनता भाड़ में जनता ,
निज मन बैठाऊॅं यही मैं भी राग ।
जीवन जीने का नियम ये तोड़ दूॅं ,
या जीवन में दुःख ही मैं जोड़ दूॅं ,
सोचकर बता जीवन साथी मन ,
कौन सी नशा कहो मैं छोड़ दूॅं ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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