किसी भी राज्य को परिसीमन से नुकसान नहीं होना चाहिए
उपसंपादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा जी की कलम से |
देश की आबादी और बढ़ती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए परिसीमन अनिवार्य है, लेकिन इससे किसी भी राज्य को, लोकसभा सीटों की नुकसान नहीं होना चाहिए। देश में 2026 में जनगणना होनी है, जिसके कारण संसदीय क्षेत्रों का परिसीमन भी किया जाएगा। क्योंकि संसद और राज्य विधानसभाओं में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या को अद्यतन जनसंख्या के अनुसार तय किया जाता है। 2021 में देश की जनगणना होनी थी, लेकिन कोरोना वायरस के कारण नहीं हो पाई।
लोकसभा सीटों को लेकर परिसीमन प्रक्रिया की शुरुआत यदि 2026 से होगी, तो ऐसे में 2029 के लोकसभा चुनाव में लगभग 78 सीटों की बढ़ोतरी होने की संभावना है। दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या आधारित परिसीमन का विरोध किया है। ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकार समानुपातिक आधार पर परिसीमन की तरफ बढ़ सकती है।
वर्ष 2026 में होने वाले परिसीमन ने दक्षिण की रोजनीति में हड़कंप मचा दिया है। क्योंकि परिसीमन होने पर दक्षिण भारत के राज्यों में लोकसभा सीटों की कटौती होने की संभावना है। ऐसी स्थिति में दक्षिणी राज्यों से बड़ा आंदोलन होना निश्चित है। फिलहाल, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच वाक युद्ध चरम पर है।
2025 तक जनसंख्या प्रोजेक्शन के डेटा के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 14, बिहार में 11, छत्तीसगढ़ में 1, मध्य प्रदेश में 5, झारखंड में 1, राजस्थान में 7, हरियाणा में 2 और महाराष्ट्र में 2 सीटों के बढ़ोतरी होने की संभावना है। वहीं, तमिलनाडु में 9, केरल को 6, कर्नाटक को 2, आंध्र प्रदेश को 5 तेलंगाना को 2, ओडिशा को 3 और गुजरात को 6 सीटों का नुकसान होने की भी अनुमान है।
1951 की जनगणना के बाद, 1952 के परिसीमन आयोग अधिनियम ने लोकसभा और राज्य विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं तय करने के लिए, पहला परिसीमन आयोग बनाया गया था। इन सीमाओं को बाद में 1962, 1972 और 2002 के परिसीमन आयोग अधिनियमों के तहत स्थापित परिसीमन आयोगों द्वारा तीन बार निर्धारित किया गया था। हाल ही में हुए परिसीमन में 2001 की जनगणना के आधार पर कुछ निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को, फिर से निर्धारित किया गया था। हालाकि, लोकसभा सीटों की संख्या प्रत्येक राज्य के लिए आवंटन और राज्य विधानसभाओं में सीटों की संख्या 1972 के परिसीमन के बाद से नहीं बदली है।
परिसीमन में जनगणना के महत्व की बात करें तो, जनगणना के आंकड़े परिसीमन का मुख्य आधार होते हैं। दक्षिण राज्यों की आशंका का मुख्य मुद्दा यही जनसंख्या है। उन्हें डर है कि उत्तर भारतीय राज्यों की जनसंख्या नियंत्रण में विफलता के कारण संसद में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है, जबकि दक्षिण में जनसंख्या नियंत्रण सफल रहा, ऐसी स्थिति में, संसद में प्रतिनिधित्व के मामले में जनसंख्या के कारण उन्हें नुकसान हो सकता है।
1971 की जनगणना के आधार पर, लोकसभा सीटों की संख्या 543 तय की गई थी, इस आधार पर प्रत्येक सांसद, लगभग दस लाख भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते है। संविधान के 42वां संशोधन अधिनियम 1976, जिसे आपातकाल की सरकार ने भारत की जनसंख्या को नियंत्रित करने के उद्देश्य से पारित किया था, उसके बाद 2000 के बाद पहली जनगणना होने तक लोकसभा सीटों की संख्या को स्थिर कर दिया गया और 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस रोक को कम से कम 2026 तक बढ़ा दिया था।
परिसमीन, अनुच्छेद 81 के तहत 'एक नागरिक, एक वोट, एक मूल्य' का सिद्धांत निर्धारित करता है। संविधान का अनुच्छेद 82 में कहा गया है कि प्रत्येक जनगणना के पूरा होने पर, राज्यों को, लोकसभा में सीटों का आवंटन और प्रत्येक राज्य को, प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन, ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनः समायोजित किया जाएगा, जो कि संसद द्वारा निर्धारित अनुच्छेद 170(3) प्रत्येक जनगणना के पूरा होने पर, प्रत्येक राज्य की विधानसभा में, सीटों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य को, प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित करने का पुनः समायोजन प्रदान करें। साधारण शब्दों में कहा जाए तो कुल जनसंख्या के आधार पर संसद द्वारा तय मानकों के आधार पर होता है।
राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस की अध्यक्षता में एक परिसीमन आयोग की नियुक्ति होती है, जिसमें मुख्य चुनाव आयुक्त या उनके प्रतिनिधि तथा राज्य चुनाव आयुक्त शामिल होते हैं। इसके अलावा, परिसीमन से गुजरने वाले प्रत्येक राज्य या केन्द्र शासित प्रदेश के लिए सहयोगी सदस्य नियुक्त किए जाते हैं। ये सदस्य लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा नियुक्त मौजूदा सांसद और संबंधित विधानसभा के अध्यक्ष द्वारा नियुक्त विधायक होते हैं। —————————
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