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नव संवत्सर (हिंदुओं के नववर्ष) का महत्व!

नव संवत्सर (हिंदुओं के नववर्ष) का महत्व!

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, हिंदुओं के नव वर्ष का आरंभ दिन है । इसी दिन सृष्टि की निर्मिति हुई थी, इसलिए यह केवल हिंदुओं का ही नहीं अपितु अखिल सृष्टि का नव वर्षारंभ है। इस दिन को नव संवत्सर, गुडी पडवा, विक्रम संवत् वर्षारंभ, युगादि, वर्षप्रतिपदा, वसंत ऋतु प्रारंभ दिन आदि नामों से भी जाना जाता है । यह दिन महाराष्ट्र में ‘गुडीपडवा’ के नाम से भी मनाया जाता है । गुडी अर्थात् ध्वजा । पाडवा शब्द में ‘पाड’ का अर्थ होता है पूर्ण; एवं ‘वा’ का अर्थ है वृद्धिंगत करना, परिपूर्ण करना । इस प्रकार पाडवा शब्द का अर्थ है, परिपूर्णता ।

नव संवत्सर

तिथि : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा। यह तिथि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष 30 मार्च को है।

वर्षारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही क्यों? इसका प्रथम उद्गाता वेद है । वेद अति प्राचीन वांग्मय है। इसके बारे में दो राय नहीं है । "द्वादश मासैः संवत्सरः", ऐसा वेद में कहा गया है। वेदों ने बताया इसलिए सम्पूर्ण संसार ने मान्यता दी। अतः वर्ष आरंभ का दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है। भिन्न-भिन्न संस्कृति अथवा उद्देश्य के अनुसार नववर्ष विभिन्न तिथियोंपर मनाया जाता हैं । जबकि हिंदु नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है । चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन वर्ष आरंभ करने के नैसर्गिक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक कारण हैं।


नैसर्गिक कारण

भगवान श्रीकृष्णजी अपनी विभूतियोंके संदर्भ में बताते हुए श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं,

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ।। – श्रीमद्भगवद्गीता (१०.३५)
अर्थ : ‘सामोंमें बृहत्साम मैं हूं । छंदोंमें गायत्रीछंद मैं हूं । मासोंमें अर्थात्‌ महीनोंमें मार्गशीर्ष मास मैं हूं; तथा ऋतुओंमें वसंतऋतु मैं हूं ।’


सर्व ऋतुओंमें बहार लानेवाली ऋतु है, वसंत ऋतु । इस काल में उत्साहवर्धक, आह्लाददायक एवं समशीतोष्ण वायु होती है । शिशिर ऋतु में पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं, जबकि वसंत ऋतु के आगमन से पेड़ों में कोंपलें अर्थात नए कोमल पत्ते उग आते हैं, पेड़-पौधे हरे-भरे दिखाई देते हैं । कोयल की कूक सुनाई देती है । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्णजी की विभूतिस्वरूप वसंत ऋतु के आरंभ का यह दिन है ।


ऐतिहासिक कारण
1. इस दिन रामने बाली का वध किया ।
2. शकोंने प्राचीनकाल में शकद्वीप पर रहनेवाली एक जाति हुणोंको पराजित कर विजय प्राप्त की ।
3. इसी दिनसे ‘शालिवाहन शक’ प्रारंभ हुआ; क्योंकि इस दिन शालिवाहनने शत्रुपर विजय प्राप्त की ।

आध्यात्मिक कारण
ब्रह्मांड की निर्मिति का दिन : ब्रह्मदेव ने इसी दिन ब्रह्मांड की निर्मिति की । उनके नाम से ही ‘ब्रह्मांड’ नाम प्रचलित हुआ । सत्ययुग में इसी दिन ब्रह्मांड में विद्यमान ब्रह्मतत्त्व पहली बार निर्गुण से निर्गुण-सगुण स्तर पर आकर कार्यरत हुआ तथा पृथ्वी पर आया ।
सृष्टि के निर्माण का दिन :
ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना की, तदुपरांत उसमें कुछ उत्पत्ति एवं परिवर्तन कर उसे अधिक सुंदर अर्थात परिपूर्ण बनाया । इसलिए ब्रह्मदेव द्वारा निर्माण की गई सृष्टि परिपूर्ण हुई, उस दिन से गुडी अर्थात धर्मध्वजा खड़ी कर यह दिन मनाया जाने लगा । ब्रम्हाजी ने सृष्टि का निर्माण चैत्र मास के प्रथम दिन किया । इसी दिन से सत्ययुग का आरंभ हुआ । यहीं से हिन्दू संस्कृति के अनुसार कालगणना आरंभ हुई ।


साढेतीन मुहूर्तोंमें से एक
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, अक्षय तृतीया एवं दशहरा, प्रत्येक का एक एवं कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का आधा, ऐसे साढेतीन मुहूर्त होते हैं । इन साढेतीन मुहूर्तों की विशेषता यह है कि अन्य दिन शुभकार्य करने के लिए मुहूर्त देखना पडता है; परंतु इन चार दिनोंका प्रत्येक क्षण शुभ मुहूर्त ही होता है ।


वातावरण अधिक चैतन्यदायी रहना
ब्रह्मदेव की ओर से सगुण-निर्गुण ब्रह्मतत्त्व, ज्ञानतरंगें, चैतन्य एवं सत्त्वगुण अधिक मात्रा में प्रक्षेपित होता है । अतः यह अन्य दिनों की तुलना में सर्वाधिक सात्विक होता है।प्रजापति तरंगें सबसे अधिक मात्रा में पृथ्वीपर आती हैं । इससे वनस्पति अंकुरने की भूमि की क्षमता में वृद्धि होती है तथा मनुष्यों की बुद्धि प्रगल्भ बनती है । वातावरण में रजकणोंका प्रभाव अधिक मात्रा में होता है, इस कारण पृथ्वी के जीवोंका क्षात्रभाव भी जागृत रहता है तथा वातावरण में विद्यमान अनिष्ट शक्तियोंका प्रभाव भी कम रहता है । इस कारण वातावरण अधिक चैतन्यदायी रहता है ।

नव संवत्सर संकल्प शक्ति की गहनता दर्शाता है। इसलिए चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को शुभ संकल्प कर ब्रह्मध्वज स्थापित करना चाहिए। तथा हमारा प्रत्येक कदम हमारी समृद्धि के लिए आगे बढ़ता रहे, इसलिए इस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन हम संकल्प करें तथा वह प्रत्यक्ष में साध्य हो, इसलिए कृतिशील भक्ति के लिए मूर्त स्वरूप
ब्रह्मध्वज की स्थापना आनंद पूर्वक करें और कहें - "ऊँ शांति शांति शांति" !


संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ "त्यौहार, धार्मिक उत्सव, एवं व्रत
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