इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू

( डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया की डिस्कवरी )
डॉ राकेश कुमार आर्य
हिंदुस्तान की कहानी में "हिंदुस्तान के अतीत का विशाल दृश्य" नामक अध्याय के शीर्षक को पढ़ने से लगता है कि नेहरू जी अपनी इस पुस्तक में रामायणकालीन, महाभारतकालीन और इस बीच या उसके पश्चात हुए अनेक सम्राटों के शासनकाल के भारत के बारे में कुछ ना कुछ बताएंगे, जिन्होंने भारत के मानवतावाद को संसार के कोने-कोने में फैलाने का काम किया और राक्षसों का अंत कर भारत की महान संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। हमें लगता है कि इस अध्याय में नेहरू जी हमारे उन अनेक ऋषियों की तपस्या स्थलियों के बारे में कोई जानकारी देंगे, जहां बैठकर उन्होंने अपने उत्कृष्ट चिंतन से मानवता का कल्याण करने हेतु अनेक उपदेश दिए। जहां बैठकर उपनिषदों की रचना की गई और जहां से अनेक सम्राट मानवता के हित में काम करने की प्रेरणा लेकर अपने राजभवनों के लिए लौटे। परंतु हमें उस समय निराशा होती है, जब हम इस पूरे अध्याय को पढ़ने के उपरांत भी कहीं यह नहीं देख पाते कि नेहरू जी भारत के उस गौरवपूर्ण अतीत पर कोई प्रकाश डाल रहे हैं।
भारत की गौरवपूर्ण विरासत को छोड़कर वह हमें किसी नीरस से जंगल की सैर कराने लगते हैं। अधकचरा ज्ञान अधकचरी जानकारी को ही परोसता है। अपने विषय में इसी सच्चाई को स्पष्ट करते हुए नेहरू जी लिखते हैं कि- "उत्तर पश्चिमी हिंदुस्तान की सिंध-घाटी में,मोहनजोदड़ो के एक टीले पर में खड़ा हुआ। मेरे गिर्द इस कदीम शहर (लगता है कि नेहरू जी के लिए इससे पुराना कोई शहर ही नहीं है। इसका कारण यह है कि उन्होंने या तो रामायण को पढ़ा नहीं या फिर रामायण को वह काल्पनिक मानकर अयोध्या जैसी नगरी के बारे में जानबूझकर उपेक्षा बरत गए। यदि वह रामायण को काल्पनिक महाकाव्य न मानकर उसको एक ऐतिहासिक ग्रंथ मानते तो रामायण में जिस प्रकार शानदार भवनों का उल्लेख किया गया है, उससे वह यह सटीक अनुमान लगा पाते कि हड़प्पा मोहनजोदड़ो से तो बहुत पहले भारत इस क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित कर चुका था।) के मकान थे और गलियां थीं। कहा जाता है कि यह सभ्यता कायम थी। प्रोफेसर चाइल्ड लिखते हैं-
"सिंघ-सभ्यता एक खास वातावरण में आदमी की जिंदगी का पूरा संगठन जाहिर करती है और यह सालहा-साल की कोशिशों का ही नतीजा हो सकती है। यह एक टिकाऊ सभ्यता थी, उस वक्त भी उस पर हिंदुस्तान की अपनी छाप पड़ चुकी थी और यह आज की हिंदुस्तानी संस्कृति का आधार है।"
बात स्पष्ट है कि वर्तमान भारत की नींव में नेहरू जी मोहनजोदड़ो को देखते हैं। वे यह स्पष्ट नहीं कर पाए या कहिए कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि मोहनजोदड़ो के निर्माता कौन थे? निश्चित रूप से वह आर्य थे अर्थात इस भारत के निर्माता जो अत्यंत प्राचीन काल से अर्थात सृष्टि के प्रारंभ से भारत के ज्ञान-विज्ञान, शिल्प कला, स्थापत्य कला आदि के क्षेत्र में महानतम कार्य निष्पादित कर रहे थे। अतः जब नेहरू जी भारत के अतीत के बारे में हमें कुछ बता रहे हैं तो उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए था कि मोहनजोदड़ो के निर्माता भारतवर्ष के ही आर्यजन थे। यदि यहां पर नेहरू जी कुछ ऐसा लिखते कि आर्यों की स्थापत्य कला या भवन कला या उनकी सभ्यता का यह तो एक छोटा सा नमूना है, वास्तविकता यह है कि उन्होंने इससे भी बड़े-बड़े भव्य भवन बनाए थे, तो बात ही कुछ और होती। वे भारत की ही धरोहर पर अपना अधिकार स्थापित नहीं कर पाए, निश्चित रूप से उनका निशाना चूक गया।
नेहरू जी इस पुस्तक में यह भी स्पष्ट नहीं कर पाए कि संपूर्ण भूमंडल पर कभी आर्यों का ही राज्य हुआ करता था। आगे चलकर वह भारत के उपनिवेशों की बात करते हैं। जिस पर हम यथा स्थान प्रकाश डालेंगे। हमारे पूर्वजों के चक्रवर्ती सम्राट दिग्दिगंत में भारत की यश पताका फहराने का कार्य करते थे। संपूर्ण मानवता भारत के नेतृत्व में हर्षित, उल्लसित और प्रफुल्लित होती थी। यदि कहीं पर भी राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का प्राबल्य होता तो हमारे आर्य राजा उनका विनाश करने के लिए अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर निकल पड़ते थे। इसको उन्होंने सही प्रकार से उल्लेखित नहीं किया। भारत के विषय में ऐसा गौरव गान करने से नेहरू बच गए।
बचते हुए नेहरू लिखते हैं-
"यह एक बड़े अचरज की बात है कि किसी भी तहजीब का इस तरह पांच या छह हजार बरसों का अटूट सिलसिला बना हो और वह भी इस रूप में नहीं कि वह स्थिर और गतिहीन हो, क्योंकि हिंदुस्तान बराबर बदलता और तरक्की करता रहा है। ईरानियों, मिस्रियों, यूनानियों, चीनियों, अरबों, मध्य-एशियायियों और भूमध्यसागर के लोगों से इसका गहरा ताल्लुक रहा है। लेकिन बावजूद इस बात के कि उसने इन पर असर डाला और इनसे असर लिया, उसकी तहजीबी बुनियाद इतनी मजबूत थी कि कायम रह सकी।"
नेहरू जी ने जिस प्रकार यहां पर यह लिखा है कि भारत ने ईरानियों, मिश्रियों, यूनानियों, चीनियों और मध्य एशियायियों और भूमध्य सागर के लोगों के साथ अपना संबंध स्थापित किया, वह भी उनकी भारतीय इतिहास के संबंध में अज्ञानता को परिलक्षित करता है। क्योंकि यह सब देश या भू-भाग कभी आर्यों के राज्य के अधीन होते थे। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि ये सबके सब आर्यावर्त का ही एक भाग थे। यह भी तब जबकि हमारे आर्य राजाओं के द्वारा जबरन इन पर अधिकार स्थापित नहीं किया गया था, अपितु ये स्वाभाविक रूप से भारत के भाग थे। भारत के इतिहास को खोजते-खोजते हम एक ऐसे काल में पहुंचते हैं, जब संपूर्ण भू-मंडल पर आयों का राज्य था, तब देश की सीमाएं निश्चित नहीं थीं। यद्यपि भौगोलिक आधार पर देश प्रदेशों के शासन की सुविधा के लिए उल्लेख मिलता है, परंतु वे सभी एक ही राजा, एक ही संविधान और एक ही व्यवस्था से अनुशासित होते थे।
भारत के इतिहास या भारत के अतीत की जानकारी देते हुए नेहरू जी आगे लिखते हैं-
"इस मजबूती का रहस्य क्या है? यह आई कहाँ से? मैंने हिंदुस्तान का इतिहास पढ़ा और उसके विशाल प्राचीन साहित्य का एक अंश भी देखा। उस विचार-शक्ति का, साफ-सुथरी भाषा का, और ऊंचे दिमाग़ का, जो इस साहित्य के पीछे था, मुझ पर बड़ा गहरा असर हुआ। चीन के और पश्चिमी और मध्य एशिया के उन महान यात्रियों के साथ, जो बहुत पुराने जमाने में यहाँ आये और जिन्होंने अपने सफरनामे लिखे हैं, मैंने हिंदुस्तान की सैर की।"
अर्थात नेहरू जी ने बाहरी यात्रियों के संस्मरणों के आधार पर भारत के इतिहास का लेखन करना आरंभ किया। बाहरी यात्री कुछ समय के लिए ही भारत रुके थे। इस काल में उन्होंने भारत के बारे में कितना समझा होगा, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है? पूरबी एशिया, अंगकोर, बोरोबुदुर और बहुत-सी जगहों में हिंदुस्तान ने जो कर दिखाया था, निश्चित रूप से इन सब बातों को नेहरू जी ने हिंदुस्तान की कहानी में गौरवपूर्ण ढंग से लिखा है। जिस पर हम आगे चलकर प्रकाश डालेंगे।
"उस पर मैंने गौर किया; मैं हिमालय में भी घूमा, जिसका हमारी उन पुरानी कथाओं और उपाख्यानों से संबंध रहा है, जिन्होंने हमारे विचार और साहित्य पर इतना प्रभाव डाला है। पहाड़ों की मुहब्बत और काश्मीर से अपने संबंध ने मुझे खासतौर पर पहाड़ों की तरफ खींचा और वहीं मैंने न महज आज की जिंदगी और उसकी शक्ति और सौंदर्य को देखा, बल्कि गुजरे हुए युगों की यादगारें भी देखीं। उन पुरजोर नदियों ने, जो इस पहाड़ी सिलसिले से निकलकर हिंदुस्तान के मैदानों में बहती हैं, मुझे अपनी तरफ खींचा और अपने इतिहास के अनगिनत पहलुओं की याद दिलाई: सिंधु, जिससे हमारे देश का नाम हिंदुस्तान पड़ा और जिसे पार करके हजारों बरसों से न जाने कितनी जातियां, फिरके, काफिले ओर फीजें आती रही हैं।"
यहां पर नेहरू जी को लिखना चाहिए था कि सिंधु नदी को पार कर हमारी सेनाएं अनेक बार भारत के मानवतावाद का संदेश लेकर संसार के कोने-कोने में प्रवास के लिए गईं और वहां पर पैदा हो गई हिंसक शक्तियों का अंत किया। वास्तव में नेहरू जी ने बाहरी फिरकों के भारत में आने से भारत का निर्माण होने की जिस प्रवृत्ति का संदेश यहां पर दिया है, वह हमारे लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुई है। भारत बाहरी जातियों, फिरकों और गिरोहों से बना देश नहीं है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए नेहरू जी को भारत को और भी अधिक समझना चाहिए था। जिस देश या समाज में जाति, फिरके और गिरोहों का वर्चस्व हो जाता है या उनका अस्तित्व बन जाता है, वहां पर मानवतावाद के लिए कोई स्थान नहीं होता। भारत ने प्राचीन काल से ही एक ऐसी व्यवस्था स्थापित की जो पूर्णतया मानवतावाद पर आधारित थी। यद्यपि कालांतर में इस व्यवस्था में कई प्रकार की विकृतियां प्रवेश करने में सफल हो गई। ऐसे में नेहरू जी से अपेक्षा थी कि वह भारत की वास्तविकता को प्रकट करते।
"ब्रह्मपुत्र, जो इतिहास की धारा से अलग रही है, लेकिन जो पुरानी कथाओं में जीवित है और पूर्वोत्तर पहाड़ों के गहरे दरारों के बीच से रास्ता बनाकर हिंदुस्तान में आती है और फिर शांतिपूर्वक और मनोहारी प्रवाह के साथ पहाड़ों और जंगलों के बीच के भाग से बहती है; जमुना, जिसके नाम के साथ कृष्ण के रास-नृत्य और क्रीड़ा की अनेक दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं; और गंगा, जिससे बढ़कर हिंदुस्तान की कोई दूसरी नदी नहीं, जिसने हिंदुस्तान के हृदय को मोह लिया है और जो इतिहास के आरंभसे न जाने कितने करोड़ों लोगों को अपने तट पर बुला चुकी है।"
कुछ समय पूर्व भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मोदी ने काशी में जब यह कहा था कि मुझे मां गंगा ने बुलाया है तो कांग्रेस के नेताओं ने उन पर अनेक प्रकार के व्यंग्य कसे थे, परंतु यहां तो नेहरू जी भी कह रहे हैं की मां गंगा ने करोड़ों लोगों को बुलाया है, इस पर कांग्रेसियों का क्या विचार हो सकता है?
गंगा की उसके उद्गम से लेकर सागर में मिलने तक की कहानी पुराने जमाने से लेकर आज तक की हिंदुस्तान की संस्कृति और सभ्यता की, साम्राज्यों के उठने की और नष्ट होने की, विशाल और शानदार नगरों की, आदमी के साहस और साधना की, जिंदगी की पूर्णता की और साथ-ही-साथ त्याग और वैराग्य की, अच्छे और बुरे दिनों की, विकास और हास की, जीवन और मृत्यु की कहानी है।
" मैंने अजंता, एलोरा, एलीफैंटा और दूसरी जगहों के स्मारकों, खंडहरों, पुरानी मूर्तियों और दीवारों पर बनी चित्रकारी को देखा और आगरा और दिल्ली की बाद के जमाने की इमारतें भी देखीं, जिनके एक-एक पत्थर हिंदुस्तान के गुजरे हुए वक़्त की कहानी कहते हैं।
अपने ही शहर, इलाहाबाद में, या हरिद्वार के स्नानों में, या कुंभ मेले में मैं जाता और देखता कि वहाँ लाखों आदमी गंगा में नहाने के लिए आते हैं, उसी तरह, जिस तरह कि उनके पुरखे सारे हिंदुस्तान से हजारों बरस पहले से आते रहे हैं। चीनी यात्रियों के और औरों के तेरह सौ साल पहले के इन मेलों के बयानों की याद करता। उस समय भी ये मेले बड़े प्राचीन माने जाते थे और कब से इनका आरंभ हुआ, यह कहा नहीं जा सकता। मैंने सोचा, यह भी कितना गहरा विश्वास है, जो हमारे देश के लोगों को अनगिनत पीढ़ियों से इस मशहूर नदी की ओर खींचता रहा है!"
इस सारे उल्लेख में नेहरू जी ने कहीं पर भी भारत की वैदिक प्राचीनता, इसके सनातन धर्म, सनातन सिद्धांतों, सनातन ज्ञान-विज्ञान और सनातन परंपरा पर प्रकाश नहीं डाला। इसका अभिप्राय है कि उन्होंने पत्थरों से, दीवारों से, विदेशी लेखकों के लिखे हुए इतिहास वृत्त से तो संवाद किया, परंतु भारत की आत्मा से संवाद नहीं कर पाए। उनके समर्थकों और प्रशंसकों ने इतने में ही संतोष कर लिया और हिंदोरा पीट दिया कि व डिस्कवरी ऑफ इंडिया में नेहरू जी ने भारत की आत्मा के साथ संवाद करके लिखा हैं। यही कारण है कि उनके प्रशंसक भी भारत की आत्मा को आज तक नहीं समझ पाए हैं। ... वारिस होना सचमुच खतरनाक होता है।
वह लिखते हैं कि " *सिर्फ चीन एक ऐसा मुल्क है, जहां भारत जैसी अटूट परंपरा और तहजीबी जिंदगी दिखाई देती है।" ऐसा लिखकर नेहरू जी ने सभ्यता के संदर्भ में चीन को भारत की बराबरी पर लाकर बैठा दिया। जबकि सच यह है कि चीन स्वयं सभ्यता और संस्कृति के लिए भारत की ओर देखते रहने वाला देश रहा है। जयशंकर प्रसाद जी की यह कविता निश्चित रूप से हमारे भीतर अपने सांस्कृतिक गौरव का बोध उत्पन्न करती है-
यवन को मिला दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि।
मिला था स्वर्ण भूमि को रत्न, शील की सिंहल में भी सृष्टि ॥
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं।
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ॥
*जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ॥
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ॥
भारत के अतीत का विशाल दृश्य उपस्थित करते समय नेहरू जी की भाषा भी कुछ इसी प्रकार की होती तो आनंद आता-
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।
बचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव ॥
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ॥
जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ॥
( आलोक - डॉक्टर राकेश कुमार आर्य जी के द्वारा 82 पुस्तकें लिखी व प्रकाशित की जा चुकी है। उक्त पुस्तक का प्रथम संस्करण : 2025 अक्षय प्रकाशन दिल्ली - 110052 से हुआ है। जिस किसी देश -भक्त,भारतीय संस्कृति -भक्त और इतिहास को समझने वाले पाठक को यह पुस्तक चाहिए तो निम्न चलभाष:पर संपर्क कर सकते हैं: - * 9911169917,8920613273*पुस्तक का मूल्य है -360 ₹, लेकिन आपको डाक खर्च सहित₹300 में भेजी जाएगी अजय कुमार आर्य कार्यालय प्रबंधक )
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