औरंगजेब का अंत

मनोज कुमार मिश्र
आज औरंगजेब बड़ी चर्चा में है। भारत के विपक्ष के सभी दल उसे आक्रांता और क्रूर न बताने के लिए नाना प्रकार के जतन कर रहे हैं। सपा कह रही है कि पेशवाओं ने भी वही जुल्म किया थे तो कांग्रेस इस विषय पर आ ही नही रही है इसके इर्द गिर्द चक्कर मार रही है। तृणमूल कांग्रेस ने अब आज़मी को समर्थन दे दिया, हालांकि अब आज़मी ने स्वयं अपना बयान वापस ले लिया है। राजद का भी यही हाल है। वे भी इस मामले में कोई टिप्पणी नहीं देना चाहते हैं कि उनका मुस्लिम वोट बैंक नाराज़ न हो जाये। इन सब मकड़जाल के बीच क्या हमें किसी इतिहासकार ने बताया कि आखिर औरंगजेब के अंत कैसे हुआ। उसे एक सशक्त सम्राट के रूप में पेश किया गया। उसे दानवीर, आम नागरिक सा जीवन जीने वाला बताया। जबकि उसके जीवन के अंतिम 27 साल मराठों को जीतने की जुगत में तंबुओं में ही कटे। इस विषय मे सही इतिहास इस प्रकार है -
छत्रपति संभाजी महाराज की निर्मम हत्या के बाद औरंगजेब के सिपहसालार ज़ुल्फ़िकार खान ने रायगढ़ के किले पर कब्जा कर लिया और उनकी पत्नी यशुबाई और उनके पुत्र को बंदी बना लिया था। बदले की आग में जलते मराठवाड़ा में संभाजी के छोटे भाई राजाराम महाराज नए छत्रपति के रूप में उभरे। उनका क्रोध शम्भाजी महाराज की 40 दिन की प्रताड़ना के कारण उफान पर था। इस बात ने सभी मराठों के मध्य एकता कर दी। सभी का अब एक ही लक्ष्य था - औरंगजेब का समूल नाश।
इससे पहले संगमेश्वर में छत्रपति संभाजी महाराज और उनके 200 लड़कों ने मुकर्रम खान के दस हज़ार सैनिकों से लोहा लिया था। जिसमे से एक थे मालोजी राव घोरपड़े जिन्होंने वीरगति प्राप्त होने तक युद्ध किया। उनके पुत्र संताजी घोरपड़े ने अपने पिता की मौत का प्रतिशोध लेने का प्रण किया और औरंगजेब की जिंदगी को नरक में बदल दिया। संताजी ने धनाजी जाधव के साथ मिलकर तुलापुर पर हमला किया जहां संभाजी को मौत के घाट उतारा गया था।
औरंगजेब ने जब यह देखा कि उसके लाखों सैनिकों के रहते हुए भी मात्र दो हज़ार मराठों ने उसके तम्बू पर शेरों की तरह हमला कर दिया तो उसके होश फाख्ता हो गए। मराठों ने उसकी फौज को गाजर मूली की तरह काट दिया। मुग़ल इतिहासकार *काफी खान* लिखता है कि तुलापुर के हमले के बाद मुग़ल संताजी के नाम से ही कांपने लगे। संताजी ने ज्यादातर सैनिकों को मार दिया और कुछ को बंदी बना लिया। उनके सिर्फ नाम मात्र से मुग़ल सेना में अफरातफरी मच जाती थी। मराठों का खौफ कुछ इस तरह तारी था कि मुग़ल चिल्ला उठते थे - हुज़ूर मराठा आ गए मराठा आ गए।
जब तक वे औरंगजेब की सुरक्षा के लिए इकट्ठा होते मराठे उन्हें काट डालते थे। औरंगजेब अपनी जान बचाने के लिए भागता फिर रहा था । यह खबर जंगल में आग की तरह फैल रही थी और मुग़ल साम्राज्य की इज्जत, धन, दौलत क्षीण होते जा रही थी। औरंगजेब के शाही टेंट से तो मराठे दो सोने के कलश भी उठा ले गए और अपनी विजय का जयघोष करते हुए सिंघड़ के किले में लौट गए। अगले दिन जब औरंगजेब ने अपने हज़ारों सैनिकों की लाशें देखीं उसके मुंह से निकला- या अल्लाह ये मराठे कभी थकते नहीं क्या, कभी समर्पण करते नहीं क्या? कहीं हम इन्हें तबाह करते करते खुद ही नेस्तनाबूत न हो जाएं।
इस हमले के दो दिन बाद संताजी ने रायगढ़ के किले पर हमला कर दिया। मुग़ल सिपहसालार ज़ुल्फ़िकार खान को, जिसने यशुबाई को बंधक बनाया था, चारों ओर से घेर लिया गया। मराठों का आक्रमण इतना जबरदस्त था कि रायगढ़ किले का कोई मुग़ल सैनिक जीवित न बचा। मराठों ने उनकी टकसाल, हाथी, घोड़े सब लूट लिए और अपने साथ पन्हाला ले गए।
अब जहां भी मुग़ल दिखते थे मराठों की शमशीर उन्हें घास की तरह काट देती थी। अगला नम्बर मुकर्रम खान का था जिसकी दगाबाजी से संभाजी महाराज पकड़े गए थे। औरंगजेब ने उसे 50 हज़ार रुपयों का इनाम दिया था और उसे कोल्हापुर और कोंकण का गवर्नर बना दिया था। दिसंबर 1689 में संताजी घोरपड़े ने उसकी सेना को घेर लिया और मुग़लों को काटना शुरू किया। मराठों ने कसम खाई थी कि वे उसे मार कर दम लेंगे। संताजी ने खुद मुकर्रम खान का पीछा किया, दौड़ाया और उसको काट कर जिंदा ही जंगल मे मरने के लिए छोड़ दिया। मुकर्रम खान की मौत से मराठों ने अपने छत्रपति संभाजी महाराज की मौत का बदला ले लिया था।
सन 1691 में छत्रपति राजाराम महाराज ने संताजी को मराठा सेना का प्रधान सेनापति घोषित कर दिया। संतकजी ने बिना समय गंवाए सिर्फ 15 से 20 हज़ार की फौज के साथ मुग़ल छावनियों पर धावा बोलना शुरू किया और सनातनी भगवा ध्वज कर्नाटक और दक्कन के इलाकों पर लहरा दिया। औरंगजेब अब कायरोंकी तरह सह्याद्रि के जंगलों में छिप कर रह रहा था। उसने अपने जीवन के 27 साल ऐसे ही कुत्तों की तरह बिताए। मराठों ने उसे यहां से वहां भागते रहने पर विवश कर दिया था। अपनी दुर्गति और पराजय को लगातार झेलता आखिर वह आज के महाराष्ट्र में मर गया, उसी जमीन पर जिसे वह कभी जीत नहीं सका। एक नीच क्रूर अत्याचारी हिंदुओं को मारकर गाज़ी की उपाधि लेने वाला शासक आखिर सभ्य कैसे हो सकता था।
यही है मराठा और औरंगजेब का असली इतिहास जिसे छिपा दिया गया। छावा फ़िल्म ने इसी कहानी का एक पक्ष कहा है।
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