हिंदी विरोध के पीछे सांप्रदायिक पूर्वाग्रह भी हैं
डॉ राकेश कुमार आर्य
देश के धुर दक्षिणी प्रान्त तमिलनाडु में भारत की राष्ट्रभाषा- हिन्दी के विरोध में एक बार फिर से राजनीति गरमा रही है। अपनी राजनीति को बचाने के लिए प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री स्टालिन हिंदी विरोध को नए ढंग से हवा देते हुए दिखाई दे रहे हैं। हमारे देश के राजनीतिज्ञों की यह प्रवृत्ति बन चुकी है कि वे निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजनीति को मनचाहे ढंग से हांकते हैं। हिंदी का विरोध करने वाले राजनीतिक लोगों का यह आरोप अनर्गल है कि इस समय केंद्र अपनी नई शिक्षा नीति के माध्यम से प्रदेश पर हिंदी को थोपने का काम कर रहा है। जब अमेरिका जैसा विशाल देश भी अमेरिकन इंग्लिश को अपनी राष्ट्रभाषा घोषित कर सकता है तो भारत को यह अधिकार क्यों नहीं है कि वह भी हिंदी को अपनी राष्ट्रभाषा घोषित करे ? परन्तु भाषा के नाम पर होने वाले इस प्रकार के विरोध प्रदर्शन ही केंद्र सरकार को हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने से रोक देते हैं। तोड़फोड़ और विखंडन के माध्यम से राष्ट्रवाद को कमजोर करने वाले असदुद्दीन ओवैसी और एमके स्टालिन जैसे राजनीतिज्ञों को जब कोई अन्य मुद्दा नहीं मिलता है तो वह अपनी परंपरागत राजनीति के माध्यम से लोगों के बीच विभेद उत्पन्न करने की नीति पर आ जाते हैं।
वास्तव में इस समय देश की केंद्र सरकार को भाषा नीति के संबंध में स्पष्ट नियम बनाने चाहिए। इस बात पर आम सहमति बननी चाहिए कि हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के साथ-साथ स्थानीय भाषाओं को भी सम्मान के भाव से देखा जाता रहेगा , परंतु राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने और लोगों के बीच हिंदी को संपर्क की भाषा बनाने के दृष्टिगत हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान मिलना समय की आवश्यकता है। यह बहुत ही दु:खद है कि असदुद्दीन ओवैसी जैसे राजनीतिक व्यक्ति भारत में अंग्रेजी की वकालत करते हुए दिखाई दें तो इसके पीछे कारण केवल एक है कि असदुद्दीन ओवैसी यह भली प्रकार जानते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में यदि वह उर्दू का पक्ष लेते हुए दिखाई देंगे तो लोग उन्हें किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करेंगे । तब उनके लिए यह सरल है कि हिंदी के विरोध में दक्षिण के राज्यों के लोगों को उकसाया जाए और इसे एक मुद्दा बनाए रखकर राजनीति को भी गरमाए रखा जाए। तमिलनाडु में जिस प्रकार भाजपा अपना जनाधार बढाती जा रही है, उसे रोकने के लिए एमके स्टालिन के लिए यह सरल है कि वह हिंदी के विरोध में लोगों को भड़का दें। इस प्रकार की परिस्थितियों में स्पष्ट हो जाता है कि तमिलनाडु में हिंदी के विरोध में जो कुछ भी किया जा रहा है, उसके पीछे केवल और केवल राजनीति खड़ी है। लोग वहां पर रेलवे स्टेशनों पर हिंदी में लिखे नामों को मिटा रहे हैं , यदि ऐसा करने वाले लोगों कोई यह पता चल जाए कि ऐसा करने से उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही हो सकती है तो वह कभी भी ऐसा गैर कानूनी और राष्ट्र विरोधी कार्य नहीं करेंगे। वह ऐसा कार्य तभी कर पा रहे हैं जब उन्हें राजनीति छूट दे रही है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि एक समय वह था जब दक्षिण के लोग हिंदी का इसलिए विरोध करते थे कि हिंदी उर्दू ,अरबी, फारसी के शब्दों से भरी हुई ' खिचड़ी भाषा ' के रूप में उन्हें दिखाई देती थी। वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी के समर्थक रहे हैं । अतः उन्हें उर्दू मिश्रित हिंदी का विरोध करना ही चाहिए था ? इस प्रकार दक्षिण के हिंदू समाज के लोग शुद्ध राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपना कर हिंदी का विरोध कर रहे थे । जबकि ओवैसी जैसे लोग उर्दू की स्थिति को मजबूत करने के लिए हिंदी के स्वरूप को बिगाड़ने का खेल खेल रहे हैं। कहने का अभिप्राय है कि ओवैसी की मानसिकता सांप्रदायिक है और वह सांप्रदायिक आधार पर ही हिंदी का विरोध कर रहे हैं । अपने इसी दृष्टिकोण से आत्मप्रेरित होकर वह लोगों को हिंदी विरोध में उकसा रहे हैं।
इसी समय दक्षिण भारत में ईसाई मिशनरियों की ओर भी हमें देखना चाहिए। ईसाई मिशनरियों की मानसिकता प्रारंभ से ही भारत में ईसा मसीह की शिक्षाओं को लागू करना रहा है। इसके लिए वह अंग्रेजी साहित्य को प्रोत्साहित कर बाइबिल की शिक्षाओं को भारत के लोगों पर लादना चाहते हैं। यह खेल सदियों पुराना है। आज जब देश के भीतर ईसाई मत को मानने वाले लोगों की संख्या अच्छी खासी हो गई है, तब ईसाई मिशनरियों या ईसाई लोगों के द्वारा दक्षिण में हिंदू और हिंदी का विरोध करना भी उनकी मजहबी सोच को ही प्रकट करता है। दक्षिण के और विशेष रूप से तमिलनाडु के लोगों को वह अंग्रेजी के प्रति पूर्वाग्रह रखने के लिए प्रेरित करते हैं। यह दुखद है कि आज दक्षिण के इस प्रांत में हिंदी को उपेक्षित कर अंग्रेजी के समर्थन में नारे लगाए जाते हैं । कितना अच्छा होता कि हिंदी का विरोध करने वाले लोग तमिलनाडु के रेलवे स्टेशनों पर अंग्रेजी में लिखे नाम को भी मिटाते ? हिंदी के मूल्य पर अंग्रेजी की वकालत करने वाले लोगों को पश्चिमी जगत भी प्रोत्साहित कर रहा है। जबकि ओवैसी जैसे राजनीतिक लोगों को भी ऐसी कई देश विरोधी शक्तियों का समर्थन प्राप्त है जो भारत के लोगों को परस्पर के तुच्छ विवादों में उलझाए रखना चाहती हैं। इस प्रकार दक्षिण के भाषा संबंधी विवाद को इस्लाम और ईसाइयत की इस मजहबी संकीर्ण सोच के माध्यम से भी देखने की आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश भारत की राजनीति और राजनीतिज्ञों को सब कुछ पता होते हुए भी विवाद की सबसे संवेदनशील नब्ज पर कोई भी हाथ नहीं रखेगा। यहां तक कि भाजपा भी ऐसा नहीं करेगी। इसका अंतिम परिणाम यह आता है कि मजहब के आधार पर राजनीति करने वाले कथित सेकुलर दलों की दाल गलती रहती है और राष्ट्र का अहित होता रहता है।
माना कि तमिलनाडु भारत की राजधानी से नई दिल्ली से बहुत दूर है, परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वह देश से बाहर है और यदि देश के भीतर है तो उसकी तपिश भारत की राजधानी नई दिल्ली में बैठे राजनीतिक लोगों को अवश्य ही अनुभव करनी चाहिए। देश की राजनीति के लिए संकीर्णताओं से ऊपर उठकर निर्णय लेने का समय आ गया है। यदि हमारे भीतर भाषा संबंधी इस प्रकार के गहरे विवाद हैं तो समझना चाहिए कि अभी हम भारत को राष्ट्र नहीं बना पाए हैं।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय अपने प्रणेता हैं। )
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