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याद करूँ मैं जब भी

याद करूँ मैं जब भी |

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)

याद करूँ मैं जब भी हमदम जीना जहर लगे है।
ये बौरायी फगुनाहट भी रुत का कहर लगे है।
 
            फर्माबरदार नजर का ही एहसासे मंजर है ,
            कोयल पत्तों में छुप कुहके नश्तर पहर लगे है ।

शोरशराबा ता दिन अजगर-सी पसरी सड़कों पर,
शबेतार में सूना-सूना बेहद शहर लगे है ।

            जिबह होती जिस कदर इंसानियत है दिख रही ,
            खातमे जम्हूरियत का आइद दहर लगे है।

आबशार है परबत की फैयाजी का इजहार ,
सह्रा में आबेहयात की खुशतर नहर लगे है ।

(शबेतार =खूब अँधेरी रात; आबशार =झरना)
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