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अनहद नाद गूंज रहा चहुं दिस

अनहद नाद गूंज रहा चहुं दिस

पंकज शर्मा
अनहद नाद गूंज रहा चहुं दिस,
सृष्टि में बही दिव्य स्पंदन ऋचाएं।
शून्य में गूंज रही यह ध्वनि अपार,
अंतर में बहती अटल अग्निधार।


नभ से उतरी ज्योति की रेखा,
ब्रह्म स्वरूप यह सुरों की रेखा।
अहंकार गलाए, ममता बरसाए,
अंतर का मौन भी इसे गुनगुनाए।


नदियों के कलरव में इसकी झंकार,
वृक्षों के पत्तों में बजता है सार।
बांसुरी में बहता मधुर ये राग,
वीणा की झंकार में गूंजे विराग।


योगी के ध्यान में इसका प्रकाश,
ऋषियों के ज्ञान में इसका निवास।
शब्दों से परे, रूपों से न्यारा,
सत्य का साक्षी, प्रेम का सहारा।


यह नाद अनाहत, यह गूंज अनंत,
इसे जो सुने, वही हो भगवंत।
हर मन में गहरे उतरता रहे,
अनहद नाद यूँ ही बजता रहे॥


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित


"कमल की कलम से"


(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)


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