वीर सावरकर : स्वतंत्रता का तेजस्वी तीर्थ
डॉ गीता सिंह , लेखिका व पर्यावरण विद
भारतवर्ष की स्वतंत्रता के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं, जो केवल कालखंड के नहीं, बल्कि चेतना के प्रतीक बन जाते हैं। ऐसे ही एक विलक्षण व्यक्तित्व का नाम है वीर विनायक दामोदर सावरकर — एक क्रांतिकारी, एक चिंतक, एक साहित्यकार और सबसे बढ़कर, एक प्रखर राष्ट्रभक्त जिनके लिए राष्ट्र ही उनका सर्वस्व था!
आज जब हम भारत की आज़ादी की कहानियाँ सुनते हैं, तो अधिकांशतः गांधी, नेहरू और नेताजी सुभाष जैसे नेताओं का स्मरण करते हैं। किंतु इतिहास के एक कोने में, वीर सावरकर का वह चेहरा भी मौजूद है, जिसने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को चुनौती दी बल्कि, ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया और भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता हासिल करने की एक ऐसी लौ प्रज्ज्वलित की जिसने हर भारतवासी को स्वतंत्र होने के लिए असीम साहस प्रदान किया!
एक बालक, जो राष्ट्र की आत्मा से जुड़ गया
28 मई 1883 को महाराष्ट्र के भगूर ग्राम में जन्मे विनायक, बाल्यकाल से ही असाधारण थे। देशभक्ति उनके लहू में थी। जब उन्होंने 'मित्र मेला' की स्थापना की, वे मात्र किशोर थे। पर उस किशोर के स्वप्न बड़े थे — स्वतंत्र भारत के स्वप्न, जो उन्होंने केवल देखे नहीं, बल्कि जीने का साहस भी किया। बाल निकल में ही अपने पिता को को देने वाले इस वीर बालक ने कभी भी इसे अपनी दुर्बलता नहीं बनने दिया बल्कि अतुलनीय साहस के साथ हर परिस्थिति का सामना करने के लिए बचपन से ही तैयार रहा! और वह बालक बना जिसने न केवल कलाम को अपनी ताकत बनाया बल्कि क्रांति को भी अपने जीवन में उतनी ही मजबूती से स्थान दिया और क्रांतिवीर बनकर आजादी की लड़ाई लड़ी ,सावरकर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने तलवार और तर्क दोनों को समान रूप से साधा। उन्होंने '1857 का स्वतंत्रता संग्राम' नामक पुस्तक में पहला साहसिक प्रयास किया कि उस क्रांति को 'विद्रोह' नहीं, 'स्वतंत्रता संग्राम' कहा जाए। यह पुस्तक ब्रिटिश सत्ता के लिए इतना बड़ा खतरा बन गई कि उसे भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया, गुलामी की ऐसी कहानी जहां कलम भी अंग्रेजों की जुबान को ही समझे उसे दहशतगर्दी के माहौल में दरिंदगी से भरे दिन रात जूझते समाज में वीर सावरकर ने अपना सर्वस्व अपने देश के लिए समर्पित कर दिया! मेधावी प्रतिभावान अत्यंत तेजस्वी वह बालक जिसका बचपन भी बेमिसाल था ,वे पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ते समय से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गए। उन्होंने 'मित्र मेला' और 'अभिनव भारत' जैसे गुप्त संगठन बनाए, जिनका उद्देश्य था — ब्रिटिश साम्राज्य का अंत और भारत की स्वतंत्रता।
उनकी लेखनी में जो तेज था, वही तेज उनके भाषणों में भी था। उनकी वाणी प्रेरणा देती थी और उनकी कलम जागृति। '1857 का स्वतंत्रता संग्राम' कबो आजादी के लिए लिखा गया ग्रंथ उस समय ब्रिटिश सरकार के लिए चुनौती बन गया, जिसे पढ़कर हर भारतीय युवा के रगों में विद्रोह का खून दौड़ने लगता था। कालापानी : पीड़ा का पर्वत, साहस की पराकाष्ठा 1909 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी — कुल मिलाकर 50 वर्ष। उन्हें भेजा गया अंडमान के सेलुलर जेल में — जहाँ मानवता को मार दिया जाता था और सिर्फ और सिर्फ यातना जीवित रहती थी। किन्तु सावरकर ने उस 'कालापानी' में भी अपनी आत्मा को बंधने नहीं दिया। उन्होंने पत्थरों पर कविताएँ उकेरीं, साथियों को शिक्षित किया, और अंधेरे कोनों में भी आशा का सूर्य खोजा उसे मौत की दलदल जमीन पर उन्होंने जीवन के कुछ फूल उगाने का भर्षक प्रयास किया और सफल भी रहे अपने साथियों के अंदर उसे जोश को जगाया जिसने आजादी के दीपक को कभी बुझने नहीं दिया!
हिंदुत्व: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की कल्पना
रिहाई के पश्चात उन्होंने ‘हिंदू महासभा’ से जुड़कर 'हिंदुत्व' का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार हिंदुत्व कोई धार्मिक पंथ नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा है। वे कहते थे — "हिंदू वह है जो भारत को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है।"उनका हिंदुत्व समावेशी था, जिसने अस्पृश्यता, जातिवाद और सामाजिक भेदभाव का विरोध किया। उन्होंने रत्नागिरी में मंदिरों के द्वार दलितों के लिए खुलवाए और सामाजिक समरसता का बीड़ा उठाया उच्च नीच की भावना का कट्टर विरोध किया हर हिंदुस्तानी की आत्मा को पवित्र मानकर उनका पूजन किया और हर हिंदुस्तानी को बराबर समझा न केवल समझा बल्कि उन्हें सम्मान भी दिया यह वह कुछ उनके चरित्र के हिस्से थे जिन्होंने उन्हें महामानव बना दिया!
गांधी हत्या और सावरकर की पीड़ा
महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात सावरकर पर आरोप लगाया गया, हालाँकि न्यायालय ने उन्हें निर्दोष पाया। पर यह आरोप उनके अंतर्मन को भीतर तक झकझोर गया। उन्होंने स्वयं को सार्वजनिक जीवन से अलग कर लिया। यह भारतीय राजनीति की विडंबना थी कि एक राष्ट्रभक्त को उपेक्षा और आरोपों के साए में अंतिम समय बिताना पड़ा दूर कोई भी हो राजनीति हमेशा हावी रहती है और यह शायद उसी का परिणाम थी कि वीर सावरकर जैसे महामानों को भी गंदी राजनीति का शिकार होना पड़ा और सार्वजनिक जीवन का त्याग करना पड़ा!
एक साहित्यिक ज्योति
वीर सावरकर केवल क्रांति के प्रतिनिधि नहीं थे, वे एक अत्यंत सक्षम लेखक और कवि भी थे। उनकी आत्मकथा ‘माझी जन्मठेप’, उनके काव्य, उनके भाषण — सब भारतीय चेतना को दिशा देते हैं।
उनकी प्रसिद्ध कविता की ये पंक्तियाँ आज भी हमारी आत्मा को उद्वेलित कर देती हैं: "ने मजसी ने परत मातृभूमीला, सागर प्राण तळमळला।" (मुझे मातृभूमि में वापस ले चलो, सागर भी मेरी उत्कंठा से तड़प उठा है।)
26 फरवरी 1966 को सावरकर ने स्वेच्छा से प्राण त्याग दिए — उन्होंने इसे 'आत्मार्पण' कहा। यह एक योगी की भांति देह त्याग था, जो जानता था कि उसका कार्य पूर्ण हो चुका है। आज जब हम राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता, और भारत की अस्मिता की बात करते हैं, तब सावरकर की उपस्थिति और भी प्रासंगिक हो जाती है। वे एक विचार थे, एक दर्शन थे, और आज भी हैं।सावरकर को केवल याद करना पर्याप्त नहीं, हमें उनका जीवन चरित्र आत्मसात करना होगा वह चरित्र जो किसी भी राष्ट्र को महान राष्ट्र बनाने के लिए आवश्यक है वह जीवन चरित्र जो एक मानव को महामानव बनता है मानवता के मूल मंत्र से कूट-कूट कर भरे उसे हिंदुस्तानी के अंदर जो साहस था जो भावनाएं थी अपने देश और देशवासियों के लिए जो असीम प्रेम था जिसके लिए उन्होंने जीवन में जाने कितनी कठिनाइयों का सामना किया वे हमेशा ही हर हिंदुस्तानी के लिए प्रेरणा का एक पत्र है जो हर भारतवंशी को जानना भी चाहिए और मनाना भी चाहिए
उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि — त्याग वह दीपक है जो इतिहास को प्रकाशित करता है, और सावरकर उस दीपों की श्रृंखला के वह अमर लौ थे, जो युगों तक अंधेरे से लड़ते रहेंगे।
सीडी 19 हिल , न्यू कॉलोनी , जे इस पी रायगगढ़ ( छत्तीसगढ़ ) ।
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