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वह किनारा कर गया तो सब किनारे हो गए !-----

वह किनारा कर गया तो सब किनारे हो गए !-----

  • एकल काव्य-पाठ में सम्मेलन अध्यक्ष ने प्रेम, ऋंगार और दर्शन के गीत-ग़ज़लों से श्रोताओं का दिल जीत लिया
पटना, २१ अप्रैल । "वह किनारा कर गया तो सब किनारे हो गए/ बुझे-बुझे से आसमां के सब सितारे हो गए", --- “है न कोई जगह बाक़ी दर्द सारे दिल में है/ और भी दुनिया का सारा ग़म हमारे दिल में है" , ----- "मैं मरुथल-सा चिर प्यासा तू प्रेम सुधा की अविरल धारा/ मैं तेरा एक सीप स्वाति का तुम मेघ का मृदु जल सारा" , ----- "नयन मिले हैं जब से उनसे क्या हुई है बात/ मंत्र-भारित हो गए हैं हर एक दिन हर रात"। ऐसे ही, प्रेम, ऋंगार और दर्शन के गीतों और ग़ज़लों से बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने श्रोताओं का दिल जीत लिया।


ग्वालियर की विदुषी लेखिका डा शकुंतला तोमर द्वारा संचालित चर्चित पटल 'सामाजिक दर्पण' के तत्त्वावधान में प्रत्येक रविवार और गुरुवार की संध्या आयोजित होने वाले विशेष साक्षात्कार कार्यक्रम 'साझा-सफ़र' के रविवार की संध्या आयोजित नए अंक में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ को आमंत्रित किया गया था। 'राष्ट्र-भाषा' और साहित्य के विविध प्रश्नों पर अपने उत्तर के क्रम में डा सुलभ ने जहाँ एक ओर भारत की 'एक राष्ट्र-भाषा' का होना आवश्यक बताया, वहीं यह भी कहा कि संसार में कोई भी गुणात्मक परिवर्तन साहित्य के माध्यम से ही होगा और उसका उपकरण 'प्रेम और सौहार्द' की रचनाएँ ही बनेंगी। उन्होंने दिनकर को उद्धृत करते हुए कहा कि दुनिया को सुंदर बनाने वाली कविता ही, बड़ी कविता होगी। "बड़ी कविता वही जो विश्व को सुंदर बनाती है"।


आरंभ में साक्षात्कार ले रहे कवि डा रत्नेश्वर सिंह ने पटल पर डा सुलभ और साहित्य सम्मेलन में हो रहे अभूतपूर्व कार्यों से परिचित कराया, जिससे एक नया इतिहास लिखा जा रहा है। डा सिंह और डा तोमर के आग्रह पर डा सुलभ ने अपने अनेक गीतों और ग़ज़लों का सस्वर पाठ कर श्रोताओं का हृदय जीत लिया। अपनी एक ग़ज़ल पढ़ते हुए डा सुलभ ने कहा कि "तड़प है, कि तलब है, कि अभी ज़िद है बाक़ी/ यह दिल भी धड़कता है कि उम्मीद है बाक़ी/ वो जब से गए हैं दूर देकर दीद हमें/ तब से इन आँखों में कहाँ नींद है बाक़ी"। इस ग़ज़ल का एक दूसरा शेर पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि "उठ गए हैं वो लोग, जो रहे कभी ज़िंदा/ इस शहर में अब लाश और गिद्ध है बाक़ी।"


जीवन के दार्शनिक सत्य को सामने रखते हुए उन्होंने इन पंक्तियों को भी स्वर दिया कि "वह किनारा कर गया तो सब किनारे हो गए / बुझे बुझे से आसमां के सब सितारे हो गए/ जो कुछ था उसी का था, जो कुछ है उसी का है/ उसकी मर्ज़ी से कुछ तेरे कुछ हमारे हो गए"। अपने इस प्रेम गीत को मधुर स्वर से पढ़कर उन्होंने श्रोताओं को भाव-लोक की गहन ऊँचाई पर पहुँचा दिया कि "स्वप्नवत लगता है ये जग आत्म-मुग्ध है मन/ ज्ञात नहीं रहता कहाँ, रस भीग रहा तन मन/ सप्त व्योम से हो रही नित प्रेम की बरसात/ मंत्र-भारित हो गए हैं, हर एक दिन हर रात।"

डा सुलभ को सुनने वाले प्रमुख लोगों में हरिद्वार से वरिष्ठ गीतकार भूदत्त शर्मा, दिल्ली से कवयित्री रंजना मजुमदार, विवेक कवीश्वर,ग्वालियर से धर्मेंद्र सिंह तोमर, नरेंद्र सिंह राजावत, कीर्ति तोमर, मध्यप्रदेश से कुमार सुरेंद्र शर्मा सागर, कानपुर से मोहन सिंह कुशवाहा, कुसुम सिंह अविचल, हरिनाथ शुक्ल, डा अनिता प्रसाद, डा ओम् प्रकाश पाण्डेय, डा अमरकान्त कुँवर, आकांक्षा सिंह, ब्रह्मानन्द पाण्डेय, पंकज कुमार खरे, आर एन सिंह आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
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