भाव के अभाव में अपने स्वभाव में ,
कभी शहर कभी गाॅंव में जीवन जीयत बानी हम ।कबहुॅं दुर्भाव में कबहुॅं सुभाव में ,
कबहुॅं अमरीत कबहुॅं जहर पीयत बानी हम ।।
अपने ही छाव में कहीं धूप कहीं छाॅंव में ,
कउआ के काॅंव में जीवन सियत बानी हम ।
नाहीं कवनो दाॅंव में नाहीं निश्चित ठाॅंव में ,
प्रकृति के पाॅंव में आपन दिन गिनती बानी हम ।।
ना कवनो दुराव में ना कवनो चाव में ,
सबके मन बहलाव में हॅंसी ला हॅंसाई ला ।
कुरीति के रीति में कुनीति के नीति में ,
सुबह शाम प्रीति में भूमिका निभाई ला ।।
साहित्यिक धार बा काव्य के प्रचार बा ,
सुभावे आचार बा देखावत भ्रष्टाचार बा ।
आपन दिन कटी कईसे करे के विचार बा ,
जीवन के आधार जवन उहे जीवन के सार बा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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