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ब्रह्मरूप बूँदों की वाणी

ब्रह्मरूप बूँदों की वाणी

“ब्रह्मरूप बूँदों की वाणी” कविता का मूल बीज हमारे द्वारा वर्ष 2019 में रचित एक श्रृंगार रस की कविता में निहित है। उस रचना में जहाँ सौंदर्य और आकर्षण का बाह्य स्वरूप मुखर था, वहीं समय के प्रवाह और जीवन के अनुभवों के साथ आज की दृष्टि ने उस दृश्य को आत्मबोध की दिशा में परिवर्तित कर दिया है।


बढ़ती उम्र और आत्मिक चिंतन की सहज परिणति के रूप में, इस कविता में हमने प्रकृति की उसी झिलमिल छटा को अब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है—जहाँ हर बूँद ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, और हर मौन क्षण वेदना नहीं, वरन् वेद की वाणी बन जाता है।


“कमल की कलम से” — शब्दों की अस्मिता का यह नया अनुष्ठान इसी यात्रा की एक विनम्र प्रस्तुति है।

कल्य उत्संग से, प्रथम रश्मि ने उचटकर
शाखों पर रख दिए रजत बिंदु,
नयन मूँद कर खड़ा रहा जग,
जैसे ध्यानस्थ ऋषि को हुआ हो आत्मबोध।


वृक्षों की शाखाएँ—
नव-संन्यासी की भुजाएँ बनीं,
जिन पर टिकी हर बूँद
कोई उपनिषद की गूढ़ वाणी-सी प्रतीत हुई।


वह एक बूँद—
जो शाखों के कोने पर काँपती रही,
न गिरती, न लुप्त होती,
बल्कि जैसे परम की प्रतीक्षा में स्थिर,
मुक्ति से पहले की अंतिम सांस।


हर बूँद में प्रतिबिंबित था ब्रह्म,
रूप का नहीं—
बोध का, शून्य का, प्रकाश का—
जो रूपहीन होकर भी संपूर्ण सौंदर्य था।


वह नवयौवना—
जो झील से नहाकर निकली थी—
अब केवल देह नहीं,
बल्कि प्रकृति में रचे गए
चैतन्य की देहधारी प्रतिमा थी।
उसके केशों पर जो बूँदें अटकी थीं,
वे नहीं थीं केवल जल—
बल्कि आत्म-स्वरूप की प्रतिध्वनि,
जैसे ब्रह्म की लीला में ठहरे हुए क्षण।


चारों ओर फैली नीरवता—
कोई मूक वेद पाठ हो जैसे,
जहाँ हर स्पंदन में मंत्र झलकता है,
और हर बूँद में आत्मा की झलक।


इस जलमाला का कोई छोर नहीं,
यह उस अखंड सत्य का आभास है,
जो बहता है भीतर—
और टपकता है बाहर—
प्रकृति के हर सौंदर्य में,
हर मौन में,
हर बूँद में।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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