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नव पंखों की स्मृति

नव पंखों की स्मृति

उस पाखी का था प्रेम निराला,
प्रस्तर-चुंबी वृक्षों के वन में,
जहाँ चंद्रिका अपनी सुध बिसरा बैठी थी,
और पवन, मानो किसी भूले गीत की व्यथा सुनाता था।

वृक्षों की कतारें नहीं थीं मात्र तनहीन काठ,
वे थे ध्यानमग्न साधक,
जिनकी जटाओं में उलझे थे समय के रहस्य,
और जिनकी शाखाएँ थीं, युगों पुरानी गाथाओं की परछाइयाँ।

उस एक वृक्ष ने पुकारा —
न शब्दों से, न पत्तों की सरसराहट से,
बल्कि किसी अदृश्य तंतु से,
जो आत्मा से आत्मा तक सीधे जा पहुँचा।

वह वृक्ष था निर्जीव सा,
पर उसकी कोटर से झाँकता था
एक अतीत —
सजीव, धड़कता, और पीड़ाओं से भीगा हुआ।

पाखी, जिसे नभ की असीम छाया पुकारती थी,
अचानक रुक गया,
मानो किसी भूले हुए राग का स्मरण हो आया हो —
उसने देखा, उस सूखे तन के भीतर
अब भी जल रही थी एक मौन ज्वाला,
जो न दृष्टिगोचर थी, न बुझी थी काल के प्रहार से।

वह कोटर नहीं था खाली,
वह था एक अनंत प्रेम की गुफा,
जहाँ किसी जन्म का कोमल प्रण
आज भी वायु की रहस्यमयी साँसों में गूंजता था।

पाखी ने न डाला वहाँ तिनकों का भार,
बल्कि अपने अश्रु-कणों से सींचा उसे,
और रच डाला एक अलौकिक घर —
जहाँ खिड़कियाँ खुलती थीं स्वप्नलोक की ओर।

वह जानता था —
यह वृक्ष अब फल नहीं देगा,
न ही उसकी डालियाँ पालने-सी हिलेंगी,
पर यह वृक्ष था उसका अतीत,
उसकी आत्मा का प्रतीक,
जिसे वह त्याग न सका।

उस सूखे तन में अब भी थीं स्मृतियाँ भीगी,
एक बिछोह की अनकही कथा,
जिसे प्रकृति स्वयं गुनगुनाती थी,
और समय मौन होकर सुनता था।


पवन ने पंखों से कहा —
“यहाँ प्रेम नहीं मुरझाता,
यहाँ हर विरह एक नव अंकुर बनता है,
जो आत्मा की गहराइयों में अंकुरित होता है।”


और पाखी ने सिर झुकाया,
मानो किसी देववृक्ष को प्रणाम करता हो,
जिसने उसे सिखाया —
प्रेम देह नहीं, आत्मा का आलिंगन होता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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