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चबुतरा पर चट बिछल हौ आ सकऽ आवऽ।

चबुतरा पर चट बिछल हौ आ सकऽ आवऽ।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
चबुतरा पर चट बिछल हौ आ सकऽ आवऽ।
आखबद के गीत कोई गा सकऽ गावऽ‌।।

के कहलको आसमानी घाम सोहरावत।
कहूँ से चिपरी अगर तूँ ला सकऽ लावऽ।।


इहाँ लुतरी लगाबे में बड़ाई मिलतो।
झूठ के चरखा चलाबे आ सकऽ आवऽ।।

ठगी के हौ जाल पसरल अपन बस्ती में।
साँच के चरचा चलाबे आ सकऽ आवऽ।।

अन्हरिया इतरा रहल बैठल दुआरी पर‌।
दिया कोई जराबे जो आ सकऽ आवऽ।।

अपन परछो बने पड़तो इहाँ अपने से।
फिन बिहान नया ,सरेख जगा सकऽ आवऽ।। १९

रामकृष्ण
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