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इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू

इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू

(डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया की डिस्कवरी) पुस्तक से ..


भारत में मांसाहार और नारी का सम्मान (अध्याय -16 )


डॉ राकेश कुमार आर्य


वैदिक संस्कृति के प्रति पूर्णतया उपेक्षित भाव रखने वाले नेहरू जी अपनी उक्त पुस्तक द डिस्कवरी ऑफ इंडिया के पृष्ठ 128 पर लिखते हैं कि-


" शिकार एक बाकायदा धंधा था। खासतौर से इसलिए कि उसके जरिए खाना हासिल होता था। मांसाहार साधारण सी बात थी और इसमें मुर्गे और मछलियां शामिल थीं। हिरण के गोश्त की बड़ी कदर होती थी। मधुओं का अलग धंधा था और कसाईखाने भी थे। लेकिन खाने की खास चीज चावल, गेहूं, बाजरा और मक्का थीं। ईख से शक्कर बनाई जाती थी। आज की तरह उस जमाने में भी दूध और उससे बनी दूसरी चीजों की बड़ी कदर थी। शराब की दुकान भी थीं और शराच जान पड़ता है चावल, फल और ईख से तैयार की जाती थी।"


हम यह मान सकते हैं कि वैदिक संस्कृति के पतन के काल में समाज में कई प्रकार की गिरावट देखी गई, परंतु यह पतन का काल था। जब पतन की स्थिति बनती है तो कुछ भी संभव होता है, परंतु भारत की वास्तविक वैदिक संस्कृति या परंपरा में कहीं पर भी मांस खाने का प्रावधान नहीं है। वेद और वैदिक आर्ष ग्रंथों में या वैदिक शास्त्रों में सर्वत्र ही मांसाहार को मनुष्य के लिए निषिद्ध किया गया है।


हमारे विद्वानों की मान्यता रही है कि कर्म-फल सिद्धान्त मनुष्य के जीवन पर बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। संसार में जो भी प्राणी जन्म लेता है वह अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भीगने के लिये ही जन्म लेता है। सभी पशु, पक्षी आदि प्राणी अपने जीवन में अपने पूर्वजन्मों के पापों का फल भोगते हैं। एक व अनेश पशु-पक्षी योनियों में फल भोगने के बाद इनका मनुष्य योनि में जन्म होता है जिससे यह मनुष्यों की भांति अपने कर्म के बन्धनों को काट कर मोक्ष को प्राप्त कर सके। सभी पशु व पक्षी भी किसी न किसी प्रकार से मनुष्य को लाभ पहुंचाते हैं। ऐसे ताभकारी पशुओं को मारना हिंसा है जो कि अमानवीय होने से मनुष्य की प्रकृति व स्वभाव के विरुद्ध है। मनुष्य का कर्तव्य लाभकारी पशुओं की रक्षा करना व उनके लिये भोजन का प्रबन्ध करना उचित है, तभी वह अपने बन्धनों को काट सकते हैं। ऐसा न करना उनके लिये बहुत अधिक हानिकारक कार्य है। मांसाहारी मनुष्य देश व समाज को भी हानि पहुंचाते हैं और अपना परजन्म भी नष्ट करते हैं। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि हिंसक स्वभाव वाले मांसाहारियों को योग विद्या व ईश्वर की पूजा में सफलता प्राप्त नहीं होती। हो भी कैसे, वह ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन जो करते हैं। अतः मनुष्य को भोजन के पदाथों पर मनन करना चाहिये व वैदिक विद्वानों की सम्मति लेनी चाहिये। पशुओं का मांस का आहार छोड़कर उनकी रक्षा व पालन कर अपने दुष्कमों का प्रायश्चित करना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।" इस संबंध में स्वामी दयानन्द महाराज लिखते हैं कि-


" देखो! जब आयों (वेद के मानने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों) का राज्य था, तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल के देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्तते थे। क्योंकि दूध, थी, बैल आदि पशुओं की चहुलाई होने से अन्न व रस पुष्कल प्राप्त होते थे। जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गी आदि पशुओं के मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुए हैं तब से क्रमशः आयों के दुःख की बढ़ती होती जाती है। क्योंकि नष्टे मूले नैव फलं न पुष्यम्। जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल फूल कहां से हो?"


हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी ने द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में इस बात पर 'डिस्कवरी' नहीं की कि जब से उनके पसंदीदा मुसलमान भारत देश में आए, तब से कई प्रकार की विकृतियों देश के सनातनी लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। उनमें से एक मांसाहार भी है। झूठ, चालाकी, छल, फरेब, चोरी, डकैती, बदमाशी आदि आर्य हिंदू राष्ट्र में ढूंढने से भी नहीं मिलते थे। नेहरु ती जिन विदेशी लेखकों अथवा यात्रियों के संस्मरणों का उद्धरण देते है उन्होंने भी भारतीय लोगों के भोजन के बारे में अपने संस्मरणों में दयानंद जी महाराज के ही मत की पुष्टि की है। फिर भी नेहरू जी के लेखन का प्रभाव यह हुआ है कि आज बहुत बड़ी संख्या में नाग हमारे ऋषियों को मांसाहारी सिद्ध करने में लगे हुए हैं। यहां तक कि हमारे ऋषि गाय का भी मांस खाते थे, ऐसा भी लिखा जा रहा है। इस धुआंधार प्रचार का कारण केवल एक है कि मांस खाने बोले मुसलमान आदि संप्रदाय के लोग भारत की शाकाहारी परंपरा को नष्ट कर सबको एक जैसा बनाने में सफल हो जाएं। इसका अंतिम तख्य देश का इस्लामीकरण करने की ओर संकेत करता है। जिस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।


महर्षि दयानन्द जी इस संदर्भ में एक काल्पनिक प्रश्न करते हैं कि जो सभी अंहिसक हो जाएं तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें। तुम्हारा पुरुषार्थ ही व्यर्थ जाय? इसके उपरांत अपने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों, उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें।


प्रश्न: फिर क्या उनका मांस फेंक दें?


उत्तर : चाहे फेंक दें, चाहे कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है।"


हमारे ऋषि पूर्वज बस इसी बात को जानते थे कि यदि मनुष्य अपनी प्रकृति और धर्म को त्यागकर मांसाहार करेगा तो उसका स्वभाव हिंसक हो जाएगा। आज यह बात सिद्ध भी हो रही है कि जिन मज़हबो को मानने वाले लोग मांसाहारी है. उनके स्वभाव में हिंसा व्याप्त दिखाई देती है। सर्वत्र आतंकवाद खून खराबा मनुष्य के अपने स्वाभाविक धर्म के विपरीत भोजन ग्रहण करने की इस राक्षसी परंपरा का ही परिणाम है।


जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात कास्ट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अमव्य और हिंसा धमादिकमों से प्राप्त होकर मोजनादि करना भव्य है। जिन पदायों से स्वास्थ्य रोगनाश बुद्धि-बल-पराक्रम वृद्धि और वायु वृद्धि होवे उन तण्डुलादि गोधूम फलमूल कन्द, दूध, घी, मिष्टादि पदाथों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब मध्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, जिस-जिस के लिए जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र में वर्जित किये हैं. उन-उৰন্ধা सर्वथा त्याग करना और जो-जो जिस के लिए विहित है उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है।


नेहरू जी जैसे लेखकों की इस प्रकार की निराधार और अनर्गत बातों का देश के जनमानस पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। आज अधिकांश लोग इसी मत के हो गए हैं कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही मद्य मांस आदि का सेवन किया जाता रहा है। जब बिना प्रमाण के लिखा जाता है तो राक्षसी प्रवृत्तियां इसी प्रकार बढ़ती हैं।


अब दूसरी बात पर आते हैं। नेहरू जी की यह भी मान्यता रही है कि भारतवर्ष में नारी जाति को पुरुष की अपेक्षा कम कानूनी अधिकार प्राप्त रहे हैं। पृष्ठ 135 पर वह लिखते हैं कि-


"कानून के लिहाज से औरतों का दर्जा सबसे पहले स्मृतिकार मनु के अनुसार निश्चित तौर पर गिरा हुआ था। वह हमेशा किसी न किसी के सहारे पर रहती थीं। वह चाहे बाप का हो, चाहे पति का, चाहे बेटे का। कानून की नजर में उन्हें चल संपत्ति जैसा समझा जाता था, फिर भी महाकाव्य की बहुत सी कथाओं से पता चलता है कि इस कानून का कड़ा अमल नहीं होता था और उन्हें समाज में और घरों में इज्जत का ओल्या मिलता था।"
पुराने स्मृतिकार मनु खुद लिखते हैं- जहां औरतों की इज्जत होती है. वहां देवता लोग आकर बसते हैं।"


तक्षशिला या किसी पुराने विश्वविद्यालय के सिलसिले में विद्यार्थियों का जिक्र नहीं मिलता, लेकिन उनमें से कुछ कहीं ना कहीं शिक्षा जरूर पाती रही हैं। क्योंकि विदधी और पढ़ी-लिखी स्त्रियों को बार-बार चर्चा हुई है। औरतों का कानूनी दर्जा कदीम हिंदुस्तान में गिरा हुआ जरूर था, लेकिन आज की कसौटी से जांचा जाए तो कदीम यूनान, रोम शुरू के ईसाई मत वाले मुल्कों और मध्य युग के बल्कि और हाल के यानी 19वीं सदी के शुरू के यूरोप में उनका जैसा दर्जा था, उससे वहां कहीं अच्छा था।


भारत की संस्कृति नारी शोषण को नहीं, अपितु नारी पोषण को प्राथमिकता देती है, उसे देवी, उषा (प्रकाशवती) कहकर सम्मानित और प्रतिष्ठित करती है। हमने विकारों की गहन निशा से पीछे जाकर प्रकाशवती उषा के इतिहास की मनोरम झांकियों को जानकर देखना बंद कर दिया। निस्सन्देह प्रकाशवती उषा की ये मनोरम झाकियां हमें वेद के स्वर्णिम पृष्ठों पर ही मिल सकती थीं। क्योंकि भारतीय संस्कृति की उदगम स्थली गंगोत्री तो वेदमाता ही है। जिस संस्कृति में जीवन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पवित्र धामों में स्नान कर मुक्ति का अधिकारी बनाने वाले वेद को माता कहा जाता हो, गायत्री को 'माता' कहा जाता हो, गंगा को माता कहा जाता हो, गाय को माता कहा जाता हो, देश की पवित्र भूमि को माता कहा जाता हो-जहां पुरुष को रघुलोक और नारी को पृथ्वी, पुरुष को साम और नारी को ऋक, पुरुष को दिन और नारी को निशा, पुरुष को प्रभात और नारी को उषा, पुरुष को मेघ और नारी को विद्युत, पुरुष को अग्नि और नारी को ज्वाला पुरुष को आदित्य और नारी को प्रभा, पुरुष को धर्म और नारी को धीरता कहकर सम्मानित करने और हर स्थान पर उसे बराबरी का स्थान देने की अनूठी और अनोखी परंपरा हो, उस देश में नारी को कुछ लोगों ने चाहे जितना पतित कर दिया हो या माना हो-पर उनका ऐसा मानना उस देश का धर्म नहीं हो सकता। अशिक्षित गंवार एवं मूर्ख नारी को बनाना भारत का कभी धर्म नहीं रहा। क्योंकि हमारे यहां तो विवाह के समय वधू को यह आशीष वचन दिया जाता है।


प्रबुध्यस्व सुबुधा बुध्यमाना


(अवर्ष 14/2/75)


अर्थात हे नव यधू! प्रवृद्ध हो, सक्द्ध हो, जागरूक रह। क्या किसी अशिक्षित, गंवार और मूर्ख वधू को यह उपदेश दिया जा सकता है?


नारी साम्राज्ञी है


वेद की नारी का आदर्श सदगृहस्थ के माध्यम से राष्ट्र और संसार का निर्माण, करना रहा। जिन अज्ञानियों ने नारी को घर की चारदीवारियों में कैद एक पिंजरे का पंछी कहकर संबोधित किया और आधुनिकता के नाम पर उसे अपने पति का ही प्रतिद्वंद्वी बना कर नौकरी पेशा वाली बना दिया उस नारी ने अपना गृहस्थ सूना कर लिया। उसने अपने प्यार को गंवाया और गृहस्थ के वास्तविक सुख से यह बंचित हो गयी, क्योंकि प्यार के स्थान पर वह प्रतियोगिता में कूद गयी और 'कम्पीटीटिव' दृष्टिकोण से उसने अपने घर में ही पाला खींच लिया। यद्यपि कई स्थानों पर दुष्टता पति की ओर से भी होती है-हम यह मानते हैं।


माता को निर्माता कहकर विभूषित करने वाली भारतीय संस्कृति सुसंतान की निर्माता माता को संसार की सुव्यवस्था की व्यवस्थापिका मानती है। क्योंकि सुसंतान ही सुंदर व सुव्यवस्थित संसार की सृजना कर सकती है। इसलिए घर से संसार बनाने वाली भारतीय सन्नारी ही विश्व शांति की और वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा की ध्वजवाहिका है। उसे इसी रूप में वंदनीया और पूजनीया माना गया है। ऐसी सन्नारी को पर्दे में बंद रखकर या घर की चारदीवारी के भीतर कैद करने की परंपरा भारत की सहज परंपरा नहीं है, अपितु यह मध्यकाल की एक विसंगति है। जिसे अपने लिए बोझ मानने की आवश्यकता हम नहीं समझते, परंतु नारी का प्रथम कर्तव्य अपने जीवन को सुसंतान के निर्माण के लिए होम कर देना अवश्य मानते हैं। पश्चिमी जगत ने नारी को 'मां' नहीं बनने दिया उसे 'लेडी' और ऑफिस की 'मैडम' बनाकर रख दिया-फलस्वरूप पश्चिमी पारिवारिक व्यवस्था में हर कदम पर कुण्ठा और तनाव है।


अब तनिक ऋग्वेद (10-85-46) इस मंत्र पर दृष्टिपात करें-


साम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्रवां भव ।


ननान्दिरि सम्राज्ञी भव साम्राज्ञी अधि देवृषु ॥


अर्थात तू श्वसुर की दृष्टि में सम्राज्ञी हो, सास की दृष्टि में सम्राज्ञी हो, ननद की दृष्टि में सम्राज्ञी हो, देवरों की दृष्टि में सम्राज्ञी हो। ऐसी नारी के लिए अथर्ववेद (3/30/2) में प्रभु से कामना की गयी है-


जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम


अर्थात पत्नी पति से मधुर और शांत वाणी बोले।


यदि नेहरू जी भारत की वैदिक संस्कृति की इस मनोरम छटा को देखते तो निश्चित रूप से वह अपने लेख में उपरोक्त बातों का उल्लेख नहीं करते और यदि करते तो साथ ही साथ भारत की वैदिक संस्कृति की प्रशंसा किए बिना भी नहीं रहते।
क्रमशः


( आलोक - डॉक्टर राकेश कुमार आर्य के द्वारा 82 पुस्तकें लिखी व प्रकाशित की जा चुकी हैं। उक्त पुस्तक के प्रथम *संस्करण - 2025 का प्रकाशन *अक्षय प्रकाशन दिल्ली - 110052 मो० न० 9818 452269 से हुआ है।
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 (लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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