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भारतीय संस्कृति प्रेमी,भारतीय इतिहास प्रेमी और 'उगता भारत' के सुधि पाठकों की जोरदार मांग पर हम फिर लाये है एक बार ...

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भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भाग - 4

हिंदुत्व के व्यापक विरोध के कारण गजनवी 10 प्रतिशत भारत भी नहीं जीत पाया था (अध्याय - 4)

डाँ० राकेश कुमार आर्य

पाठक वृंद ! हमारी इतिहास संबंधी यह शोधपरक श्रृंखला पिछले कई वर्ष से निरंतर प्रकाशित होती रही है। जिसे पाठकों की बहुत अधिक प्रशंसा प्राप्त हुई है। इस श्रृंखला में प्रकाशित हुए सभी लेखों को हमने ' भारत के 1235 वर्षीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास' नामक अपनी 6 खंडों की पुस्तकों में प्रकाशित कराया है। जिससे भारत सरकार द्वारा भी पुरस्कृत किया गया है। अब पाठकों की मांग और रुचि के दृष्टिगत इस श्रृंखला को हम फिर से प्रकाशित कर रहे हैं। -संपादक


आ नंदपाल के पश्चात उसके पौत्र भीमपाल ने अपने महान पूर्वज राजा जयपाल की वीर और राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण परंपरा को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। इस शिशु राजा को पुनः कुछ अन्य राजाओं ने सैन्य सहायता देने का निश्चय किया। अतः एक बार पुनः देशभक्ति का एक रोमांचकारी वातावरण देश में बना। राजा ने झेलम नदी के तट पर बालानाथ की पहाड़ियों में मार्गला घाटी में महमूद का सामना करने के लिए स्थान का निर्धारण किया। यहां इस स्थान पर छापामार युद्ध को अच्छी तरह लड़ा जा सकता था, लेकिन नवयुवक राजा ने ऐसा न करके सीधे-सीधे सामना करना ही उचित समझा। देश की इस राष्ट्रीय सेना के लिए यह पहला अवसर था जब उसे पहाड़ों के बीच ऐसा युद्ध लड़ना पड़ रहा था। फलस्वरूप वीरता पर क्रूरता हावी हो गई और हम युद्ध हार गए। यह घटना 1014 ई. की है।


राजा भीमपाल ने लुटेरे को मार भगाया


अगले ही वर्ष महमूद ने फिर भीमपाल पर हमला किया, पर इस बार राजा भीमपाल ने इस लुटेरे आक्रांता को पीछे धकेलकर देश से बाहर भगाने में सफलता प्राप्त की, परंतु महमूद गजनवी ने 1018 ई. में उस पर फिर आक्रमण किया और इस बार सारे पश्चिम एशिया से छंटे हुए लुटेरों और आततायियों को सम्मिलित कर वह भारत की ओर बढ़ा। महमूद गजनवी के विशाल दल को देखकर तथा अपने साथ इस बार किसी अन्य राजा को न पाकर राजा ने संधि करना ही श्रेयस्कर समझा। महमूद गजनवी और आगे बढ़ा तथा बुलंदशहर के राजा हरदत्त को हराकर मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि पर खड़े विशाल मंदिर को नष्ट कर दिया गया और भारी मात्रा में लूट का सामान प्राप्त कर लिया गया। प्रो. हबीब कहते हैं कि इस बार लूटते समय मालूम होता है कि ईर्ष्या से महमूद गजनवी पागल-सा हो गया था।


विदेशी इतिहासकारों की दुरंगी बातें


भारत के विषय में विदेशी इतिहासकारों की बातें नितांत दुरंगी हैं। यदि हमारे रामायण कालीन और महाभारत कालीन पात्रों तथा उनके वैभव और विकास की बातें होने लगें तो यह लोग उन सब बातों को काल्पनिक कहकर उन्हें मूल्यहीन सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, परंतु द्रौपदी के पांच पति होने के गप्प को भी सच मानकर हमारी संस्कृति का उपहास उड़ाते हैं। द्रौपदी की इस गप्प को सच मानते हैं और राम व कृष्ण आदि के अस्तित्व को ही नकारते हैं। कैसी विडंबना है?


इसी प्रकार इतिहास बता रहा है कि भारत के सांस्कृतिक वैभव को सोमनाथ से भी पहले मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि को अपमानित करके नष्ट किया गया था परंतु हमें बता दिया गया कि कृष्ण तो वैसे ही काल्पनिक हैं, इसलिए उनके जन्मस्थल पर खड़े मंदिर के नष्ट होने से अधिक दुखी होने की बात नहीं है। बीते हुए कल की ऐसी दुखद घटनाओं को तो हमें इसलिए भूलने के लिए कहा जाता है कि "बीती ताहि बिसार दे और आगे की सुधि लेहि." वाली बात ध्यान में रखो और आज जो कुछ हो रहा है उसे धर्मनिरपेक्षता छाप सहिष्णुता को अपनाने की बात कहकर भूलने की अपेक्षा की जाती है।


'शैतान' से कोई नहीं कहता कि तू अपनी शैतानियों को छोड़ और जो अब तक शैतानियां की हैं उन पर प्रायश्चित कर। उसे बिगड़ैल बच्चा समझकर 'सब सुधर जाएगा' वाली स्थिति में रखकर क्षम्य माना जाता है और देश के बहुसंख्यकों को नितांत मर्यादित रहने की शिक्षा दी जाती है। यह तो अच्छी बात है कि हमें नितांत मर्यादित रखा जाए, परंतु यही बात 'बिगड़ैल बच्चे' पर भी लागू होनी चाहिए। वह सदियों से बिगड़ैल है और क्या आने वाली सदियों तक बिगड़ैल ही रहेगा?


.....और तब तक हमारा क्या होगा?


कृष्ण जन्म भूमि का कण-कण हमसे यही प्रश्न कर रहा है। हमने कुरूक्षेत्र के कृष्ण की गीता को उनके नाम पर बढ़ाते-बढ़ाते इतना भारी कर दिया कि उनकी मूल वाणी ही कहीं विलुप्त हो गई, उनकी द्वारिका को समुद्र ने विलुप्त 46 कर दिया, उनके मंदिर को महमूद ने विलुप्त कर दिया और उनकी ऐतिहासिकता को विदेशी इतिहासकारों ने विलुप्त कर दिया। हमने विलुप्त के इस अंतहीन क्रम के अतिरिक्त अपने 'योगीराज कृष्ण को और दिया ही क्या है? स्वयं अपने ही विषय में अनभिज्ञ रहने के आदी हो चुके हैं हम लोग। श्रीकृष्ण को वैसे और दे भी क्या सकते हैं? यदि हम कुछ नहीं कर सकते हैं तो हमारी ओर से हमारे राष्टधर्म का प्रो. हबीब देखिए किन शब्दों में निर्वाह कर रहे हैं :-


"महमूद असीम संपत्ति में लोटता था। भारतीय उसके धर्म से घृणा करने लगे। लुटे हुए लोग कभी भी इस्लाम को अच्छी नजर से नहीं देखेंगे? ...जबकि इसने अपने पीछे लुटे मंदिर, बर्बाद शहर और कुचली लाशों की सदा जीवित रहने वाली कहानी को ही छोड़ा है। इससे धर्म के रूप में इस्लाम का नैतिक पतन ही हुआ है, नैतिक स्तर उठने की बात तो दूर रही। उसकी लूट 30,00,000 दिहराम आंकी गई है।"


क्या हिंदू कायर थे?


विदेशी आक्रामकों की क्रूरता के सामने भारत की वीरता हारी हुई देखकर अक्सर लोग हिंदुओं को कायर कह देते हैं। अपनों ने हमें 'कायर मान लिया, उन्होंने 'काफिर मान लिया, जबकि अंग्रेजों ने हमें 'टायर्ड (थकी हुई मानसिकता से ग्रस्त) मान लिया और देखिए कि हम इन तीनों पुरस्कारों को ही अपनी पीठ पर लादे फिर रहे हैं। यदि कोई यह हमसे कहे भी कि इन को उतारो, फेंको अथवा छोड़ दो तो हम ऐसा कहने वाले पर ही गुरीत हैं। शेर सियारों में बहुत दिन रह लिया तो अपने शेरत्व को ही भूल गया है। हिंदू कायर आदि नहीं था। वह हर स्थान पर और हर वस्तु में नैतिक नियमों की पवित्रता का समर्थक था। व्यापक नरसंहार, स्त्रियों के साथ दानवीय अनाचार और बच्चों तक के साथ अमानवीय अत्याचार भारत की युद्ध शैली में कभी सम्मिलित नहीं थे। पूर्णतः वर्जित थे यह अमानवीय कृत्य। मुस्लिम आक्रामकों की युद्ध शैली में पहली बार ऐसे कृत्य देखकर हिंदू इन आक्रामकों के प्रति घृणा से भर गया। यही कारण रहा कि कभी पविष्य में भी यह दोनों विचारधाराएं निकट नहीं आ सकीं। इसलिए यह की मिश्रित संस्कृति का निर्माण भी नहीं हुआ। संस्कृति तब निर्मित होती है, भी दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारत में किसी हिंदू मुस्लिम नाम जब आपकी नैतिकता और मेरी नैतिकता समान स्तर की हों, तो वे मिलते ही परस्पर घुल-मिल जाती हैं। जबकि यहां शिवाजी अपने शत्रु की पुत्रवधू को अपने खेमे में आने पर भी लौटा रहे हैं और वे हमारी बहू-बेटियों को लूट का माल समझ रहे हैं। कैसे आप इसे मिश्रित संस्कृति कहेंगे? जैन, बौद्ध, पारसी और सिक्खों ने कभी ऐसा कृत्य नहीं किया. इसलिए वह हमारी वास्तविक संस्कृति के अंग बन गए और आज तक हैं। यही सोच भारत की संस्कृति के सर्वाधिक निकट है। आप हिंदुओं की देश धर्म के प्रति असीम भक्ति देखिए कि हर बार के आक्रमण के साथ गजनवी हजारों स्त्री पुरुषों व बच्चों को दास बनाकर ले जाता था, उनका फिर एक मेला लगाता था। जिसमें अरब के लोग उन्हें अपनी वासना पूर्ति या अन्य कार्यों के लिए खरीदते थे जो इस पकड़ में आ जाते थे वे आजीवन यातना झेलते थे और जो नहीं आते थे, वे अपनों के बिछुड़ने की पीड़ा से कराहते रहते थे, परंतु फिर भी देश धर्म के प्रति श्रद्धा बनाए रखी, असीम यातनाओं को लंबे काल तक झेलना भी कायरता नहीं, शूरवीरता ही होती है।


कन्नौज के अपघाती शासक को दण्ड


कन्नौज का दुर्भाग्य रहा है कि वहां कई 'जयचंदों' ने जन्म लिया है। महमूद गजनवी के काल में कन्नौज के शासक ने उसके सामने फटाफट आत्मसमर्पण कर दिया था और अपनी प्रजा पर असीम अत्याचारों को मूक होकर देखता रह गया था। यह बात कालिंजर और ग्वालियर के राजाओं को अच्छी नहीं लगी थी। इन राजाओं ने मिलकर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और प्रजा पीड़क राजा से कन्नौज की प्रजा को मुक्ति दिलाकर अपने राजधर्म का पालन किया। इन दोनों राजाओं की राष्ट्रीय भावना यहीं तक सीमित नहीं रही, उन्होंने महमूद के आक्रमण को रोकने के लिए राजा भीमपाल और उसके पिता त्रिलोचन पाल की सहायता करने का भी निश्चय किया। 1019 ई. के शीतकाल में महमूद ने पंजाब की ओर से आक्रमण करने की योजना बनाई। दुर्भाग्य रहा इस देश का कि त्रिलोचन पाल की सेना युद्ध से पहले ही बिखर गई। उसकी सेना की यह स्थिति देखकर सहायक राजाओं का भी मनोबल टूट गया। तब महमूद गजनवी को इस सेना का जो कुछ भी माल पल्ले पड़ा उसे ही लेकर वह चला गया। हमारी 'अहिंसा परमो धर्म' की नीति हमारे लिए घातक सिद्ध हुई। फिर भी अलबरूनी ने भीमपाल राजा के वंश के विषय में लिखा है-वे उच्च विचार और सभ्य आचार के महान व्यक्ति थे। अपनी महानता के कारण वे अच्छे और सच्चे कामों को करने में कभी भी पीछे नहीं हटे। अंतिम जीवित उत्तराधिकारी भीमपाल अजमेर के राय के पास चले गए। चहां 1029 ई. में उनका देहांत हो गया।


शत्रु के मुंह से भी प्रशंसा निकलना किसी के व्यक्तित्व की महानता को नमन करना ही होता है। हमें स्मरण रखना होगा कि अवरोध की निर्बल पड़ती परंपरा के कारण महमूद गजनवी ने लाहौर को हमसे छीन कर वहां मुस्लिम शासक की नियुक्ति कर दी थी। यह राज्य पंजाब के कल्लूर शासकों की राजधानी रहा था। महमूद ने भारत की धरती पर लूटमार और आक्रमण तो कई किए थे, पर शासन स्थापित करने का उसका यह कार्य पहला ही था। सन 1022 में महमूद ने ग्वालियर और कालिंजर पर आक्रमण किया। यहां से वह कुछ लूट का माल लेकर लौट गया।


वीर सेल्यूक हिंदू जाति


वृहत्तर भारत अत्यंत विस्तृत था। आज हम जिस भारत को देखते हैं वह तो उस समय के महाभारत का अत्यंत लघु रूप है। महमूद गजनवी के समय समरकंद (समरखण्ड) के पास एक वीर हिंदू सेल्यूक जाति रहती थी। इसके योद्धाओं की उस समय धाक थी। उनके आसपास से गजनवी कई बार निकलकर भारत की ओर आया, परंतु उनसे कभी युद्ध का खतरा मोल नहीं लिया। यह लोग भी अपने देश धर्म के प्रति गहरी निष्ठा रखते थे और उन्हें यह पसंद नहीं था कि कोई उनके देशधर्म को किसी प्रकार से क्षति पहुंचाए। महमूद भी इन लोगों से सीधे टकराने और उन्हें समाप्त करने से बचता था। एक बार उसने इन लोगों को अपने मूल स्थान से उठाकर अन्यत्र बसाने का निश्चय किया। जिससे उसका इस्लामी राज्य पूर्णतः मुस्लिम माना जाए। इसी सोच के वशीभूत होकर महमूद ने सेल्यूकों को परशियन के चरागाहों में जा बसने को कहा। उस समय तो सेल्यूकों ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया परंतु गजनवी के मरने के पश्चात इन्हीं सेल्यूकों ने उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न करने में विशेष योगदान देकर पिछले पापों का प्रतिशोध लिया था। जब यह लोग महमूद के समय में स्थान परिवर्तन कर नदी पार कर रहे थे तो कहा जाता है कि इन्हें नदी में ही डुबोकर मारने का परामर्श गजनवी को उसके सैन्याधिकारियों ने दिया था. परंतु महमूद का इनकी वीरता से ऐसा करने का साहस नहीं हुआ था। निश्चित ही इन सेल्यूकों के योगदान पर अभी भी विशेष शोध की आवश्यकता है।


सोमनाथ पर आक्रमण


सोमनाथ का मंदिर उस समय के सर्वाधिक संपन्न मंदिरों में गिना जाता था। कहा जाता है कि इस मंदिर के पास जितनी धन-संपदा उस समय थी उसका सीवां भाग भी किसी राजा के पास नहीं था। अतः ऐसे धन-संपदा संपन्न मंदिर पर महमूद जैसे लुटेरे की दृष्टि ना पड़े ऐसा कैसे संभव था? इसलिए उसने अक्टूबर, 1025 ई. में इस मंदिर पर आक्रमण करने के आशय से गजनवी से प्रस्थान किया। जनवरी, 1026 में उसने मंदिर पर आक्रमण किया। मंदिर में दो सौ मन सोने की एक जंजीर थी। मंदिर के प्रांगण में स्थित पाषाण स्तंभ भी स्वर्णावेष्टित थे। 3000 ऊंटों पर व हजारों घोड़ों और हाथियों पर मंदिर का खजाना लादकर ले जाया गया था।


उस समय के लिए कहा जाता है कि सारे राजस्थान के राजपूत राजाओं ने वापस लौटते महमूद को घेरने की योजना बनाई थी, लेकिन उसने मार्ग परिवर्तन कर लिया और दूसरी ओर से निकल गया। तब रास्ते में उसे जाटों ने मुल्तान में घेरने का प्रयास किया था, लेकिन वह जाटों से भी बच गया था। गजनवी पहुंचकर वह मुलतान के जाटों से प्रतिशोध लेने पुनः आया। जाटों को बड़ी यातनाएं दी गई। और उनकी पत्नियों को मुस्लिम लुटेरे अपने साथ ले गए। सोमनाथ के मंदिर का पूर्णतः विध्वंस कर दिया गया था।


महमूद ने कितना भारत जीता


अब हम 1030 की बात कर रहे हैं। 30 अप्रैल को इसी वर्ष महमूद मृत्यु का ग्रास बना। वह उस समय 63 वर्ष का था। मूलतः वह लुटेरा था, फिर भी उसने भारत के पश्चिम में एक इस्लामिक साम्राज्य खड़ा कर लिया था। यह साम्राज्य कुछ अफगानिस्तान में तो कुछ पाकिस्तान में और कुछ आज के पंजाब के क्षेत्र से मिलकर बना था। उस समय के भारत का यह लगभग 10 प्रतिशत भाग ही होगा। शेष 90 प्रतिशत भारत तो तब भी स्वतंत्र था। 1030 में हम 10 प्रतिशत की हानि झेल रहे थे जबकि सन 712 ई. से मुस्लिम आक्रांता हमारे भू-भाग को हड़पना चाह रहे थे। 318 वर्ष में उन्हें 10 प्रतिशत की अस्थायी सफलता मिली। जबकि हम संघर्ष के 318 वर्षों में अपने 90 प्रतिशत भू-भाग को बचाए रखने में सफल रहे। दुर्भाग्य है इस देश का कि जो 318 वर्षों में 10 प्रतिशत सफल हुए उन्हें तो शत-प्रतिशत अंक दिए गए और जिन्होंने मात्र 10 प्रतिशत ही विदेशी शत्रु, उन्हें पूर्णतः असफल मानकर शून्य अंक दिए गए। कितना बड़ा छल, कितना बड़ा प्रपंच और कितना बड़ा झूठ है यह? जिसे हम सदियों से ढोते आ रहे हैं। इसी छल के कारण हमारे भीतर यह धारणा बैठा दी गई कि मोहम्मद बिन कासिम यहां आया और उसने आते ही भारत को हथकड़ी बेड़ी लगाई और पराधीनता के कारावास में डाल दिया और अगले 1235 वर्ष तक यह देश पराधीनता के कारावास में पड़ा सड़ता रहा। अपने पुरुषार्थ और पौरुष पर अपने आप ही पानी फेरने का ऐसा अपघात किसी अन्य देश में होता नहीं देखा जाता। सचमुच हमें इतिहास बोध नहीं है, यदि इतिहास बोध होता तो हम अब तक अपना वास्तविक इतिहास लिख डालते।


डकैतों का वंदन राष्ट्रघात है


राजा जब अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण करता है तो ऐसे आक्रमण राजनीतिक उद्देश्य से किए जाते हैं, जिनके प्रतिशोध में कई बार आपकी ओर से भी आक्रमण हो सकता है। जहां युद्धों का ऐसा आदान-प्रदान होता है, वहां युद्धों से होने वाली क्षति भी क्षम्य होती है, परंतु जहां लूट और नरसंहार आक्रमण का एक मात्र उद्देश्य हो वहां ऐसे आक्रमण को लूट व नरसंहार की घटना मानकर आक्रांता को डकैत अथवा मानवता का हत्यारा कहना ही उचित होता है।


भारत ने कभी सिकंदर के यूनान पर आक्रमण नहीं किया, भारत ने कभी गजनवी या गोरी के देश पर भी चढ़ाई नहीं की, इसलिए इनको लुटेरा ही कहा जाएगा। परंतु इन्हें महान कहकर हमें पढ़ाया गया है। जो 'नायक' (हीरो) थे और वास्तव में महान थे वे तो जीरो हो गए और जो जीरो थे वो हीरो या महान कहकर प्रस्तुत किए गए। छल व कपट का ऐसा ताना-बाना भारतीय इतिहास पर चढ़ाया गया कि आज तक वह उतारे से भी उतर नहीं रहा है। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार और क्रूरता कभी सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित कराने में सहायक नहीं हो सकते और ना ही इन कार्यों को कभी महान माना जा सकता है, तो फिर भारतीय इतिहास में ऐसा क्यों पढ़ाया जा रहा है?


क्रमशः


( आलोक - डॉक्टर राकेश कुमार आर्य के द्वारा 82 पुस्तकें लिखी व प्रकाशित की जा चुकी हैं। उक्त पुस्तक के प्रथम *संस्करण - 2018 का प्रकाशन डायमंड पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली - 110020 दूरभाष-011- 40712100 से हुआ है।
यदि आप उपरोक्त पुस्तक के माध्यम से सच्चाई जानना चाहते हैं कि-


संपूर्ण भारत कभी गुलाम नहीं रहा*


(मुझे बड़ा अटपटा लगता है जब कोई व्यक्ति-यह कहता है कि भारत वर्ष 1300 वर्ष पराधीन रहा। कोई इस काल को एक हजार वर्ष कहता है, तो कोई नौ सौ या आठ सौ वर्ष कहता है। जब इसी बात को कोई नेता, कोई बुद्धिजीवी, प्रवचनकार या उपदेशक कहता है तो मेरी यह अटपटाहट छटपटाहट में बदल जाती है और जब कोई इतिहासकार इसी प्रकार की मिथ्या बातें करता है तो मन क्षोभ से भर जाता है, जबकि इन सारे घपलेबाजों की इन घपलेबाजियों को रटा हुआ कोई विद्यार्थी जब यह बातें मेरे सामने दोहराता है तो भारत के भविष्य को लेकर मेरा मन पीड़ा से कराह उठता है, पर जब कोई कहे कि भारत की पराधीनता का काल पराधीनता का नहीं अपितु स्वाधीनता के संघर्ष का काल है... )


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डॉ राकेश कुमार आर्य ( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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