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मूल्य का बोध

मूल्य का बोध

अपनी कीमत उतनी ही रखिए,
जो अदा हो सके सहज भाव से,
बहुत महँगा जो बन जाता है,
वो अक्सर छूट जाता है हाथों से।


बचपन से सीखा था यही,
कि खुद को सबसे ऊपर रखना है,
पर जीवन ने धीरे-धीरे सिखाया —
ऊँचाई पर अक्सर अकेलापन बसता है।


चमकते हैं हीरे भी, पर
हर जेब में नहीं बसते,
जो अनमोल बन जाता है,
वो रिश्तों में नहीं ढलते।


जब स्वयं को जाना भीतर झाँककर,
तब अहं की परतें उतरती गईं,
और पता चला, असली मूल्य वही है,
जो सादगी में भी मुस्कुरा सके कहीं।


हर कोई नहीं समझता उस मूल्य को
जिसे मापा न जा सके,
जो अनमोल हो जाते हैं,
वो अक्सर अकेले रह जाते हैं।


भीड़ में रहना है तो
कुछ समझौते करने पड़ते हैं,
हर मोती को शंख में
नहीं पनाह मिलती सागर के।


आत्मा की गहराइयों में डूबकर
मैंने जाना — मूल्य मेरा मेरे कर्म में है,
ना कि उस नकली शोहरत में
जो कुछ वक्त की मेहमान है।


अपनी कीमत ऐसी रखो
कि लोग पास भी आ सकें,
तुम्हें पा सकें, समझ सकें,
और दिल से अपना कह सकें।


सच तो यह है —
स्वयं को जान लेना ही सबसे बड़ा मूल्य है,
जो आत्मा को निहार ले,
वो किसी की निगाहों का मोहताज नहीं।


वरना अनमोल चीज़ों का यही हश्र है,
वे संग्रहालयों में सजी रह जाती हैं,
न कोई उन्हें छूता है, न जीता है,
बस देखी जाती हैं... और भुला दी जाती हैं।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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